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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ आक्रमणोंके कारण जो असंख्य मूर्तियाँ और स्तूप मन्दिरोंके मलवेके नीचे दब गये और वहाँ टीले बन गये, उनकी खुदाईके फलस्वरूप कुछ प्राचीन कलावैभव भूगर्भसे प्राप्त हुआ है। ऐसे प्राचीन टीलोंकी संख्या कम नहीं है, जिनकी खुदाई नहीं हुई है। अकेले कंकाली क्षेत्रमें सात टीले हैं। उनमें से केवल चार टीलोंकी ही खुदाई हो पायी है, जिसके फलस्वरूप हजारों कलाकृतियाँ उपलब्ध हुई हैं। यदि सभी टीलोंकी खुदाई योजनापूर्वक की जाये तो यहाँकी धरतीकी छातीके नीचेसे अब भी संस्कृति और कलाका विपुल भण्डार मिल सकता है। किंवदन्ती
चौरासी नामक प्राचीन स्थानपर नवीन मन्दिर-निर्माणकी कथा अत्यन्त रोचक है। इस सम्बन्धमें एक बहुप्रचलित किंवदन्ती इस प्रकार है
एक बार डीग ( भरतपुर ) के एक सज्जन हण्डावाले सेठको रात्रिमें स्वप्न आया कि चौरासीमें अमुक स्थानपर जम्बूस्वामीके चरण जमीनमें गड़े हुए हैं, उसे तुम जाकर निकालो और वहाँ मन्दिर बनवाओ। प्रातःकाल उसने उठकर अन्य जैनबन्धुओंसे इस स्वप्नकी चर्चा की और वे सब लोग चलकर चौरासी पहुँचे। निर्दिष्ट स्थानको खोदा तो उन्हें जम्बस्वामीके चरण मिले। सबने मिलकर आपसमें मन्दिरके लिए धन-संग्रह किया। किन्तु वह धन इतना न था जिससे मन्दिरका निर्माण हो सकता। तब वे मथराके सेठ मनीराम टोंग्या के पास गये जो सेठ राधामोहन पारिखके मुनीम थे, और टोंग्याजीने पारिखजीके परामर्शसे एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिरका निर्माण कराया। उन्हीं दिनों ग्वालियर राज्यमें भगवान् अजितनाथकी एक मनोज्ञ श्वेतपाषाणकी पद्मासन प्रतिमा खुदाईमें निकली थी। यह समाचार टोंग्याजी तक भी पहुँचा। इन्होंने इस प्रतिमाको लानेके लिए पारिखजी द्वारा ग्वालियर सरकारसे आज्ञा प्राप्त कर ली। किन्तु प्रतिमा अधिक वजनदार थी। अतः टोंग्याजी को चिन्ता हुई कि इसे मथुरा कैसे पहुँचाया जाये। उन्हें उसी रातको स्वप्न हुआ कि यदि कोई धर्मात्मा व्यक्ति इस प्रतिमाको अकेले ही उठाकर बैलगाड़ीमें रखेगा तो यह प्रतिमा आसानीसे मथुरा पहुँच जायेगी। सुबह होते ही उन्होंने इस स्वप्नकी चर्चा अपने कुटुम्बीजनोंसे की। तुरत ही उनके पौत्र सेठ रघुनाथ दासकी भावना हुई। उन्होंने पवित्र वस्त्र पहनकर पहले तो भक्तिभाव पूर्वक भगवान् अजितनाथकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्होंने णमोकार मन्त्र पढ़कर उस प्रतिमाको उठाया तो वह ऐसे उठ गयी, मानो वह फूलोंकी बनी हुई हो। उसे गाड़ीपर विराजमान करके चौरासी ले गये और दिगम्बर आम्नायके अनुसार धूमधामके साथ उसकी प्रतिष्ठा करायी। वार्षिक मेला
पहले यहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक वदी १ से ८ तक वार्षिक मेला भरता था। किन्तु अब कुछ वर्षोंसे यह मेला चार दिनका होने लगा है। प्रारम्भ और अन्त के दिन यहाँ रथ निकलता है। पहले मेलेके अवसर पर आसपासके बहुतसे स्थानोंसे जैन लोग समोसरण लेकर आते थे। इसी अवसरपर भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभाका अधिवेशन भी हआ करता था। समोसरण के लिए आसपासके सभी स्थानोंके प्रत्येक घरसे एक रुपया वार्षिक चन्दा ( लाग ) भी आता था। किन्तु व्यवस्था आदिकी कमी होनेके कारण मेले और चन्देका वह रूप अब नहीं रहा। समोसरणकी व्यवस्था मथुराकी दिगम्बर जैन समाज करती है। कुछ सदस्य बाहरके भी लिये जाते हैं। सेठघराना ( सेठ मनीरामके वंशज ) इसकी व्यवस्थामें बराबर रुचि लेता है।