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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ रूपमें अंकित हैं। एक अन्य मूर्तिमें नेमिनाथके दोनों ओर बलराम और कृष्ण द्विभुजी बनाये गये हैं।
गुप्तकालकी प्रतिमाओंके सिर धुंघराले कुन्तलोंसे अलंकृत हैं। प्रभामण्डल विविध प्रकारके और अलंकृत मिलते हैं। प्रतिमाओंके पीठासनोंपर लांछन अंकित करनेकी प्रथा प्रारम्भ हो जाती है। इस कालकी जो प्रतिमाएं मिलती हैं, उनमें एक प्रतिमाकी चरण-चौकीपर मीन युगल बना हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि यह प्रतिमा अठारहवें तीर्थंकर अरनाथकी है। इसी प्रकार एक प्रतिमाके नीचे दो मृगोंके बीचमें धर्मचक्र अंकित है। यह प्रतिमा सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ भगवान् की है।
मथुरामें ऐसी भी तीर्थंकर प्रतिमाएँ मिली हैं, जिनकी कटिमें लंगोटका चिह्न है। किन्तु ऐसी प्रतिमाओंकी संख्या अत्यल्प है। दूसरी बात यह भी है कि ऐसी प्रतिमाएँ माथुरी वाचना' ( वीर नि. सं. ८४० अर्थात् ई. सन् ३१४ ) के पश्चात्कालकी है। तीसरी बात यह है कि ऐसी प्रतिमाओंमें उन्मीलित नेत्र नहीं हैं।
यहाँ जैन देव और देवियों की मूर्तियाँ भी मिली हैं जो कुषाणकालकी हैं। इनमें एक है नैगमेश या हरिनैगमेशी। यह देव बच्चोंसे घिरा हुआ मिलता है। दूसरी देवीका नाम रेवती या षष्ठी है। इस देवीका मुख बकरेका होता है। इसका सम्बन्ध भी बच्चोंसे है। तीसरी देवी है सरस्वती। जैन सरस्वतीकी प्राचीनतम मूर्ति कंकाली टीलेसे निकली है। इस समय वह लखनऊ म्यूजियममें है। इसका एक हाथ अभयमुद्रामें उठा हुआ है। दूसरे हाथमें ग्रन्थ है । इनके अतिरिक्त अम्बिका, चक्रेश्वरी आदि देवियोंकी मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
यहाँ वेदिकाके बहुत खण्डित भाग मिले हैं। जैन स्तूपके चारों ओर तोरणसहित वेदिका बनानेकी प्रथा थी।
हिन्दू अनुश्रुतिके अनुसार मथुरा सप्त महापुरियोंमें मानी जाती है। नारायण श्रीकृष्णके जीवनके साथ मथुराका दीर्घकालीन सम्बन्ध रहा है। किन्तु यह आश्चर्यकी बात है कि कुषाण युगमें श्रीकृष्णकी कोई प्रतिमा उपलब्ध नहीं हुई। हाँ, इस कालकी विष्णुकी कुछ प्रतिमाएँ मिली हैं।
यहाँ उपलब्ध अभिलेखोंके अध्ययनसे एक विशेष बातपर प्रकाश पड़ता है कि मथुरामें आयागपट्ट, प्रतिमाएँ, शिलास्तम्भ आदि स्थापित करानेवालोंमें सभी वर्गके लोग सम्मिलित थे। उनमें उच्चवर्णके अतिरिक्त गणिका, नर्तकी, लुहार, सार्थवाह, गन्धी, पुजारी, सुनार, घाटी या नाविक आदि भी थे। ऐसा लगता है कि शक-कुषाणकालसे गुप्तकाल और उसके कुछ बाद तक मथुरा में जैनधर्म सर्वसाधारणका धर्म था।
१. माथुरी वाचना भगवान् महावीरके निर्वाणके ८४० वर्ष बाद श्रीस्कन्दिलाचार्यकी अध्यक्षतामें मथुरामें
एक सभा हुई, जिसमें द्वादशांगका संकलन किया गया। यही माथुरी वाचना कहलाती है। किन्तु इस वाचनासे कुछ लोगोंको सन्तोष नहीं हुआ। तब उसी वर्ष वलभीमें श्रीनागार्जुनकी अध्यक्षतामें दूसरी वाचना हुई । इसमें भी श्वेताम्बर परम्परा और साहित्यकी तसवीर पूरी और साफ नहीं बन पायी । तब फिर इस वाचनाके १४० वर्ष बाद अर्थात् वीर नि. सं. ९८० में श्री देवद्धि गणी क्षमाश्रमणकी अध्यक्षतामें वलभीमें सभा हुई और वहाँ शास्त्रोंको अन्तिम रूप दिया गया। वे शास्त्र ही श्वेताम्बरोंको मान्य हुए।