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________________ ५२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं पार्श्वनाथ भगवान्की है । वह स्थिरा नामक महिलाके द्वारा दान की गयी थी । मथुरा म्यूजियम में एक शिलापट्टपर भगवान् ऋषभदेवकी प्रतिमा उत्कीर्ण है । इसपर ब्राह्मी लिपिका लेख अंकित है । लेख के अनुसार यह प्रतिमा कुषाण नरेश शाही वासुदेव ( १३८१७६ ई.) के राज्यके चौरासीवें वर्ष में एक मठमें विराजमान की गयी थी । Ferrarat तीर्थंकर प्रतिमाएँ दो ही आसनोंमें मिलती हैं - एक तो पद्मासन ध्यानस्थ प्रतिमाएँ और दूसरी जाँघसे हाथोंको सटाकर सीधी खड़ी प्रतिमाएँ । ये खड्गासन या कायोत्सर्ग मुद्रावाली प्रतिमाएँ कहलाती हैं । तीर्थंकरोंके मस्तक या तो मुण्डित हैं या छोटे-छोटे घुंघराले केशोंसे अलंकृत हैं । आँखें अर्धोन्मीलित हैं । कान कन्धों तक लटकनेवाले नहीं हैं । प्रतिमाओंकी हथेलियोंपर धर्मचक्र और पैर के तलुओंपर त्रिरत्न और धर्मचक्र बने रहते हैं । वक्षस्थल के बीचोंबीच श्रीवत्स चिह्न बना रहता है। कुछ प्रतिमाओंके हाथकी उँगलियोंके पोरपर भी श्रीवत्सादि मंगल चिह्न बने रहते हैं । इस कालमें प्रतिमाओंपर परिचायक लांछनोंका अभाव है । इस कालकी जितनी तीर्थंकर प्रतिमाएँ यहाँ उपलब्ध हुई हैं, वे सब दिगम्बर हैं । यहाँ तीन प्रतिमाएँ ऐसी भी मिली हैं जिनमें दिगम्बर साधु वस्त्र खण्ड हाथमें पकड़े हुए दिखाई पड़ते हैं । ये अर्धकालक सम्प्रदाय के अनुयायी हैं । ये मूर्तियाँ आजकल लखनऊ संग्रहालय में हैं । यहाँ भगवान् नेमिनाथकी कई ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें भगवान् नेमिनाथ के अगलबगलमें नारायण श्रीकृष्ण और बलराम खड़े हैं । कृष्ण चतुर्भुज हैं । बलराम हाथमें चषक लिये हुए हैं, तथा मस्तक पर नागफण है । कृष्ण विष्णु के अवतार रूपमें तथा बलराम शेषनागके अवतारके स-स्य शिशीनिनं असंगमिकये शिशीनि..... द- अवलये (निर्वर्त) नं (२) अ... लस्य धी (तु) ... धुवेणि ब- श्रेष्ठ (स्य) धर्मपत्निये भद्रि (से) नस्य स..... (मातु) कुमारमितयो दनं भगवतो ( प्र . ) ..... द....मा सव्वतो भद्रिका तीसरे महीने के पहले दिन भगवान् की एक (मेहिक) कुलके अर्य्यजयभूतिकी शिष्या अर्थ्य संगकुमारमित्रा.... लकी पुत्री.... की वधू और श्रेष्ठी अर्थात् (सफलता हो) १५ वें वर्ष की ग्रीष्म ऋतुके सर्वतोभद्रका प्रतिमाको कुमरमिता ( कुमार मित्रा) ने faarat शिष्या अर्थ्य वसुला के आदेश से समर्पित की। वेणीकी धर्मपत्नी और भट्टिसेनकी माँ थी । १. अ - सिद्धको ( ट्टि ) यतो गणतो उचेन गरितो शखतो ब्रह्मादासि अतो कुलतो शिरिग्रिहतो संभोकतो अय्य जेष्ट हस्तिस्य शिष्यो अ (यूर्यम) (हि) लो । व तस्य शिष्य (T) अक्षेर ( को ) वाचको तस्य निर्वतन वर ( ण ) हस्ति ( स्य ) स- (च ) देवयच धित जयदेवस्य वधु मोषिनिये वधु कुठस्य कथय - (ति) ह स्थिरए दन शवदोभद्रिक सर्व सत्वनहित सुखये । अर्थात् कोट्टियगण, उचेनगरी ( उच्चनागरी) शाखा ( और ) ब्रह्म - दासिक कुल शिरिग्रह संभोगके अय्य ज्येष्ठहस्तिन् के शिष्य अय्र्यमिहिल ( आर्य मिहिर ) थे। उनके शिष्य वाचक असूर्य क्षेरक थे । उनके कहने से वरणहस्ती और देवी दोनोंकी पुत्री, जयदेवकी बहू तथा मोषिनीकी बहू, कुठ कसुथकी धर्मपत्नी स्थिरा दानसे सर्वजीवोंके कल्याण और सुखके लिए सर्वतोभद्रिका प्रतिमा दी गयी ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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