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________________ ५० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ प्रजाने सप्तर्षियोंके आदेशसे इस स्थानपर तथा अन्यत्र अनेक जैनमन्दिर बनवाये थे। सप्तर्षि टीलेमेंसे उपलब्ध जैन मूर्तियोंको देखकर यह सहज ही विश्वास होता है कि यहाँ टीलेके स्थानपर प्राचीनकालमें कोई विशाल जैनमन्दिर रहा होगा। श्री सिद्धसेन सूरि (१२-१३वीं शताब्दी) द्वारा विरचित 'सकलतीर्थस्तोत्र' के अनुसार मथुरा पार्श्वनाथ और नेमिनाथके स्तुप थे। 'विविध तीर्थ-कल्प' के अनुसार यमुना तटपर अनन्तनाथ और नेमिनाथके मन्दिर थे। ___उपर्युक्त विवरणके अनुसार प्राचीनकालसे--विशेषतः ईसा पूर्व ८-९वीं शताब्दीसे अर्थात् तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथके कालसे-मथुरामें विभिन्न स्थानोंपर स्तूपों, मन्दिरों और मूर्तियोंका निर्माण बराबर होता रहा । शुंग, कुषाण और गुप्तकालमें निर्माण प्रचुरतासे हुआ। कुषाणकालमें जिनमुर्तियोंका निर्माण हुआ, उनमें कला-पक्षका विशेष निखार हुआ। शासन देवताओंकी मूर्तियाँ प्रायः गप्तकाल की हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं और शासन देवताओंकी मूर्तियोंके अतिरिक्त जो कलाकृतियाँ उपलब्ध हुई हैं, वे प्रायः ईसवी सन्के प्रारम्भसे पाँचवीं शताब्दी तककी हैं। इस कालमें कलाका शृंगार पक्ष विशेष समुन्नत हुआ। नारी-मूर्तियों का अलंकरण कलाके विकसित रूपका प्रमाण है। अष्ट मंगलद्रव्य, अष्ट प्रातिहार्य, तीर्थंकरोंके चिह्नोंकी प्रतीकात्मक योजना, धर्मचक्र, स्वस्तिक, सिद्धार्थवृक्ष, चैत्यवृक्ष आदिने भी मथुरा शैलीके इस विकसित रूपमें अपना उचित स्थान ग्रहण किया है । यहाँके कई आयागपट्टों और शिलापट्टोंपर सुपर्णों, नागों, गन्धर्वो और नृत्यांगनाओंके नृत्य, गानके द्वारा कलाके ललित पक्षका भी प्रदर्शन मुखर हुआ है। आनन्दके प्रतीक धनपति कुबेरकी तोंद, ललनाओंके केश-प्रसाधन और केशविन्यासमें पाषाणपर जो सजीव और स्पष्ट रेखांकन हुआ है, उससे कला धन्य हो गयी है। नर-नारीके वस्त्रोंकी चुन्नटोंका ऐसा कौशलपूर्ण तक्षण सम्भवतः अन्यत्र दुर्लभ है । यहाँ उपलब्ध जैन शिलालेखोंकी संख्या ११० है । जैनोंकी पूजा-पद्धतिमें निम्नलिखित प्रतीकोंका स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है धर्मचक्र, स्तूप, त्रिरत्न, चैत्यस्तम्भ, चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, पूर्णघट, श्रीवत्स, शरावसम्पुट, पुष्पपात्र, पुष्पपडलग, स्वस्तिक, मत्स्ययुग्म और भद्रासन । इनके अतिरिक्त जैनअर्चाका एक और प्रतीक था आयागपट्ट । आयागपट्ट एक चौकोर शिलापट्ट होता था, जिसपर मध्यमें तीर्थंकर प्रतिमा बनी होती थी। उसके चारों ओर स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, श्रीवत्स, भद्रासन, वर्धमानक्य,मंगलघट, दर्पण और मत्स्य-युगल बने रहते थे। ये 'अष्टमंगल द्रव्य' कहे जाते हैं। एक आयागपट्टपर आठ दिशाओंमें आठ देवियोंको नृत्य-मुद्रामें अंकित किया गया है। अन्य आयागपट्टोंपर वेदिका सहित तोरण और अलंकरण अंकित हैं। इनमें से कुछ आयागपट्टोंके नीचे ब्राह्मी लिपिमें लेख भी अंकित हैं। इनसे पता चलता है कि ये पूजाके उद्देश्यसे स्थापित किये जाते थे। मथुरामें कुषाणकालके कई आयागपट्ट मिले हैं। इनमें से एक समूचा आयागपट्ट तथा दूसरा खण्डित आयागपट्ट, जिसपर तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है, विशेष महत्त्वपूर्ण है । समूचे आयागपट्टपर एक जैनस्तुप, उसका तोरणद्वार, सोपान मार्ग और दो चैत्यस्तम्भ बने हैं जिनपर क्रमशः धर्मचक्र और सिंहकी आकृतियाँ बनी हुई हैं । सिंह तीर्थंकर महावीर स्वामीका चिह्न है । १. सिरि पासनाह सहियं रम्म, सिरिनिम्मियं महाथूनं । कलिकाल विसुतित्थं, महुरा नयरीउ वंदामि ॥ २. 'विविध तीर्थकल्प' में चतुरशीतिमहातीर्थ नाम संग्रह कल्प ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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