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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ भगवान् महावीरके निर्वाण-गमनके १३०० वर्ष बाद बप्पभट्ट सरि हुए। उन्होंने ८वीं शताब्दीमें उसका जीर्णोद्धार कराया। कूप, कोट बनवाये। ईंटें खिसक रही थीं, उनको हटाकर स्तूपको पत्थरोंसे वेष्टित कर दिया। स्तूपके सम्बन्धमें आचार्य जिनप्रभ सूरिने जो कुछ भी लिखा है, वह सब स्वयं अपनी आँखोंसे प्रत्यक्ष देखकर या अनुश्रुतियोंके आधारपर लिखा है । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि मथुरामें एक प्राचीन स्तूप आचार्य महाराजके काल तक भी विद्यमान था। इसके पूर्व इस स्तूपकी चर्चा आचार्य सोमदेव सूरिने 'यशस्तिलक चम्पू' में की है। इनके पौने तीन सौ वर्षके पश्चात् होनेवाले कवि राजमल्ल द्वारा रचित 'जम्बूस्वामी चरित्र'से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि राजमल्ल सिद्धक्षेत्रकी वन्दनाके लिए साहू टोडरके साथ मथुरा गये थे। साहू टोडर कोल ( अलीगढ़ ) जिलेके रहनेवाले थे और टकसालके काममें दक्ष थे। जब वे मथुरा पहुँचे तो उन्होंने देखा कि बीचमें जम्बूस्वामीका स्तूप ( निःसही स्थान ) बना हुआ है। उनके चरणोंमें विद्युच्चर मुनिका स्तूप था। आसपासमें अन्य मुनियोंके स्तूप बने हुए थे। इन मुनियोंके स्तूप कहीं पाँच, कहीं आठ, कहीं दस और कहीं बीस इस तरह बने हुए थे। तत्रापश्यत्स धर्मात्मा निःसहीस्थानमुत्तमम् । अन्त्यकेवलिनो जम्बूस्वामिनो मध्यमादिमम् ।।८१।। ततो विद्युच्चरो नाम्ना मुनिः स्यात्तदनुग्रहात् । अतस्तस्यैव पादान्ते स्थापितः पूर्वसूरिभिः ॥८२।। क्वचित्पञ्च क्वचिच्चाष्टौ क्वचिद्दश ततः परम् । क्वचिद् विंशतिरेव स्यात् स्तूपानां च यथायथम् ।।८७।। -कथामुखवर्णन, जम्बूस्वामी चरित्र स्तूपोंकी जीर्णशीर्ण दशा देखकर उनके मनमें उनके उद्धारकी भावना आयी। उन्होंने विपुल व्यय करके ५०१ स्तूपोंका एक समूह और १३ स्तूपोंका दूसरा समूह-इस तरह ५१४ स्तूपोंका उद्धार किया। इन स्तूपोंके पास ही १२ द्वारपालों आदिकी भी स्थापना करायी। यह कार्य वि. सं. १६३० ज्येष्ठ शुक्ला १२ बुधवारको समाप्त हुआ। इस विवरणसे यह स्पष्ट हो जाता है कि १६वीं शताब्दीके अन्त और १७वीं शताब्दीके प्रथम पादमें मथुरामें ५१४ स्तूप मौजूद थे और उनका जीर्णोद्धार हुआ था। कंकाली टीलेकी खुदाईमें एक स्तूप और दो जिन-मन्दिरोंके अवशेष प्राप्त हुए तथा सैकड़ों जैन मूर्तियाँ मिली हैं। ससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीन कालमें यह स्थान तथा इसके आसपास चौरासी क्षेत्र तकका इलाका जैनधर्मका केन्द्र था। सम्भवतः अति प्राचीन काल में यहाँ वन था। जम्ब स्वामीका निर्वाण और विद्युच्चर आदि ५०० मुनियोंका स्वर्गवास यहीं हुआ था। अतः शहरके निकट, निर्वाण भूमिपर ही ये स्तूप या निषधिकाएँ बनायी गयी थीं। इन पाँच सौ एक मुनियोंके अतिरिक्त अन्य मुनियोंने भी यहाँसे निर्वाण या स्वर्ग प्राप्त किया। अतः उनके भी स्तूप बनाये गये। फिर सिद्धक्षेत्र होनेके कारण यहाँ मन्दिरोंका भी निर्माण हुआ। इस प्रकार यह स्थान सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथके कालसे ही- जब कि धर्मरुचि धर्मघोष मनियोंका निर्वाण यहाँसे हआ-जैन धर्मका केन्द्र बन गया था। मथुरामें जैनोंका दूसरा केन्द्र सप्तर्षि टीला रहा है। श्रीमनु आदि सप्तर्षियोंने मथुरामें जिस स्थानपर चातुर्मास किया था, वह स्थान ही सप्तर्षि टीला कहलाने लगा। महाराज शत्रुघ्न और
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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