SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इसमें मूर्ति-प्रतिष्ठापनाके स्थानके बारेमें लिखा है-'थूपे देवनिर्मिते'। यह स्तूप बौद्ध स्तूप कहलाता था। यह इतना सुन्दर था कि लोग यह कल्पना तक नहीं कर सकते थे कि यह मनुष्यकी कृति हो सकती है। यह लेख निश्चित रूपसे कुषाण कालका है। उस काल अर्थात् दूसरी शताब्दी तक लोग स्तूपके निर्माताका नाम भी भूल चुके थे तथा उस स्तूपकी अनिन्द्य कलाको देखकर यह विश्वास करने लगे थे कि ऐसी कलाकृतिका निर्माण किसी पुरुष द्वारा न होकर देवों द्वारा ही सम्भव हो सकता है। पुरातत्त्वविद् विन्सेण्ट स्मिथका भी विश्वास है कि यह स्तूप निश्चित रूपसे भारतमें ज्ञात स्तूपोंमें सबसे प्राचीन है। इस स्तूपका पुरातात्त्विक महत्त्व असाधारण है। यह तो अभी तक निर्णय नहीं हो पाया कि कंकाली टीलेकी खुदाईके समय फ्यूररको ईंटोंका जो प्राचीन स्तूप मिला था, क्या वह वही स्तूप है, जिसकी ओर उपर्युक्त मूर्ति-लेख संकेत करता है। दूसरा प्रश्न निर्णयके लिए यह भी रह जाता है कि जिस स्तुपको देवनिर्मित कहा गया है. वह कितना प्राचीन है। ____ इस स्तूपके इतिहास और काल-निर्णयके लिए जैन साहित्य हमें समुचित सहायता प्रदान करता है। आचार्य जिनप्रभसूरि ( ४१वीं शताब्दी) ने 'विविध तीर्थकल्प' नामक ग्रन्थमें 'मथुरा कल्प' लिखा है । उसमें उन्होंने लिखा है सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथके तीर्थमें धर्मरुचि और धर्मघोष नामक दो मुनि थे। वे एक बार विहार करते हुए मथुरा पधारे। तब मथुरा बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी थी। वह जमुनातटपर स्थित थी और प्राकारसे परिवेष्टित थी। वे मुनि भूतरमण उपवनमें पहुँचे और चातुर्मास योग धारण कर लिया। उनकी कठोर तपस्यासे प्रभावित होकर उस वनकी अधिष्ठात्री देवी कुबेरा उनके चरणोंमें आकर बोली-'भगवन्, आपसे मैं प्रसन्न हूँ। आप कोई वरदान माँग लीजिए।' साधु बोले-'देवी ! हम तो निर्ग्रन्थ मुनि हैं, हमें क्या चाहिए।' तब देवीने बड़ी भक्तिसे रातमें सोने और रत्नोंसे मण्डित, तोरणमालासे अलंकृत, शिखरपर तीन छत्रोंसे सुशोभित एक स्तूपका निर्माण किया। उसकी चारों दिशाओंमें पंचवर्ण रत्नोंकी मूर्तियाँ विराजमान कीं। उसमें मूलनायक प्रतिमा श्री सुपार्श्वनाथ स्वामीकी थी। दूसरे दिन लोग उस अद्भुत स्तूपको देखकर आश्चर्य करने लगे। उन मुनियों और चतुर्विध संघको बड़ा आनन्द हुआ। वे मुनि यथासमय वहींसे कर्मनष्ट करके सिद्ध परमात्मा बने। तबसे यह सिद्धक्षेत्र कहलाने लगा। भगवान पार्श्वनाथ-तेईसवें तीर्थंकरके कालमें मथुराका राजा बड़ा लोभी था। उसने जब इस रत्न-स्वर्णमय स्तूपको देखा तो उसने आदेश दिया कि स्तूपको तोड़ कर इसका स्वर्ण और रत्न राजकोषमें जमा कर दो। सिपाही कुल्हाड़ा चलाने लगे। कुल्हाड़ा स्तूपके ऊपर चलता और घाव राजा और सिपाहियोंके होते। वे त्रस्त हो गये। देवताने ऋद्ध होकर कहा-'पापियो! जैसा राजा पापी है, वैसे ही तुम भी पापी हो। जो जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करेगा, उसका घर बचेगा, शेष घर नष्ट हो जायेंगे। यहाँका जो राजा जिन-प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायेगा, केवल वही बचेगा।' देवताके वचन सुनकर राजा-प्रजा सबने वैसा ही किया। एक बार पार्श्वनाथ भगवान्का समवसरण यहाँ आया, उनका उपदेश हुआ। जब वे अन्यत्र विहार कर गये, तब देवताने कहा-'भगवान्ने कहा है कि दुषमाकाल आने वाला है। उसमें राजा और प्रजा लोभग्रस्त हो जायेंगे। अतः अब इस स्तुपको ढंक देना उचित रहेगा। तब उसे ईंटोंसे ढंक दिया। मुख्य स्तूपके बाहर एक पाषाण मन्दिर भी बनवाया गया।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy