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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ बौद्धधर्ममें महात्मा बुद्धकी मूर्तियाँ कुषाणकालमें बननी प्रारम्भ हुईं। इससे पहले उनका पूजन विविध चिह्नों-जिनमें भिक्षापात्र, वज्रासन, उष्णीष्, त्रिरत्न, स्तूप, बोधिवृक्षके रूपमें होता था। कुषाण-कालमें बुद्धकी मानुषी प्रतिमाका निर्माण होने लगा। वैदिक धर्म में पहले प्रकृतिके विविध तत्त्वोंकी उपासनाका प्रचलन था। कुषाण कालमें ही विष्णु, दुर्गा, शिव, सूर्य आदि देवदेवियोंकी मूर्तियाँ बनने लगीं। मथुरामें हिन्दुओंके सबसे प्राचीन जिस मन्दिरका उल्लेख मिला है, वह राजा शोडाश ( शासनकाल ई. पू. ८० से ई. पू. ५७ ) के राज्यकालमें निर्मित हुआ। एक सिरदलपर उत्कीर्ण शिलालेखसे ऐसा ज्ञात हुआ है । शक-कुषाण काल ( लगभग ई. पू. १०० से ई. सन् २०० तक ) में मथुरामें तीनों धर्मोकी मूर्तियाँ और मन्दिर विपुल परिमाणमें निर्मित हुए। उनकी सही संख्या तो ज्ञात नहीं की जा सकी, किन्तु खुदाईके द्वारा मथुराके विभिन्न स्थानोंसे जो पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध हुई है, वह महत्त्व और संख्याकी दृष्टिसे अन्य स्थानों-जहाँ पिछले १०० वर्षों में खुदाई हुई है, की अपेक्षा बहुत अधिक है। सबसे अधिक सामग्री कंकाली टीलासे प्राप्त हुई है। यह आगरा-गोवर्धन सड़कके एक कोनेमें मथुराके दक्षिण-पश्चिमी किनारेपर है। यह सात लोंका समूह है। यहाँ कंकाली देवीका एक छोटा-सा मन्दिर है जो विशेष प्राचीन नहीं है। उसके कारण यह कंकाली टीला कहलाने लगा है। वैसे इन टीलोंसे चौरासी मन्दिर और उसके आसपास टीलोंकी लम्बी शृंखला चली गयी है। कंकाली टीलेसे जैन पुरातत्त्व की जो सामग्री मिली है, उसमें अनेक स्तुप, मतियाँ, सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ, शिलालेख, आयागपट्ट, धर्मचक्र, तोरण, स्तम्भ, वेदिका स्तम्भ तथा अन्य बहुमूल्यं कलाकृतियाँ हैं। सन् १८८८ से १८९१ तककी खुदाईमें केवल इस टोलेसे ही ७३७ कलाकृतियाँ मिली थीं। ४७ फुट व्यासका ईंटोंका एक स्तूप तथा दो प्राचीन मन्दिरोंके अवशेष भी मिले थे। यहाँ जो पुरातन अवशेष प्राप्त हए वे प्रायः सभी जैन हैं। अभिलेखों और प्राचीन साहित्यसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ईसाके कई सौ वर्ष पूर्वसे ग्यारहवीं शताब्दी तक यह जैनोंका केन्द्र रहा था। इसके अतिरिक्त सप्तर्षि टीला, कृष्ण जन्मभूमि आदिसे भी कुछ जैन मूर्तियाँ मिली थीं। यह सम्पूर्ण सामग्री मथुरा, लखनऊ, कलकत्ता, लन्दन आदिके म्यूजियमोंमें सुरक्षित है। पुरातत्त्व-वेत्ताओंके मतानुसार यह सामग्री ईसा पूर्व चौथी शताब्दीसे ईसाकी बारहवीं शताब्दी तककी है। जो पुरातत्त्व सामग्री प्राप्त हुई है, उसमें ईसाकी दूसरी शताब्दीकी भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी एक प्रतिमा भी है। उसके सिंहासनपर एक महत्त्वपूर्ण लेख है, जो इस प्रकार है पंक्ति १-सं. ७९ व ४ दि. २० एतस्यां पूर्वायां कोट्टिये गणो वैरायां शाखायां पंक्ति २-को अथ वृघहस्ति अरहतो नन्दि ( आ ) वर्तस प्रतिमं निवर्तयति पंक्ति ३-भाविय॑ये श्राविकाये ( दिनाये ) दानं प्रतिमा वोद्वे थूपे देवनिर्मित प्र....... अर्थात् वर्ष ७९ की वर्षा ऋतुके चतुर्थ मासके बीसवें दिन कोट्टिय गणकी वैर शाखाके आचार्य वृद्धहस्तिने अर्हत् नन्द्यावर्तकी प्रतिमाका निर्माण कराया और उन्हींके आदेशसे भार्या श्राविका दिना द्वारा यह प्रतिमा देवनिर्मित बौद्धस्तूपमें दान स्वरूप प्रतिष्ठापित हुई। कुछ विद्वान् नन्द्यावर्तके स्थानपर मुनिसुव्रतस पढ़ते हैं जो अधिक संगत लगता है। -जैन शिलालेख संग्रह भाग २, पृ. ४२
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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