SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ नये यादव राज्यकी स्थापना की। इसीके वंशज वीर पाण्डयने वि. सं. १४८२ में कारकलमें बाहुबलीकी ४१।। फुट ऊँची प्रतिमा बनवायी। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दीमें कलिंगमें सम्राट खारवेल हआ। उस समय मगधपर शुंगवंशी बृहस्पति मित्रका शासन था। इन्हीं दिनों भारतपर ग्रीक लोगोंके आक्रमण पुनः प्रारम्भ हो गये। दुन्ति यवनराज देमित्रियस ( Demetrius) पंजाबको रौंदता मगधकी ओर बढ़ता हुआ मथुरा आ पहुँचा। सम्राट खारवेल भी कलिंगसे मगधकी ओर बढ़ रहे थे। तीन सौ वर्ष पहले नन्दवंशी महापद्मनन्द कलिंग-विजयके समय कलिंगवासियोंके आराध्य 'कलिंग' जिन'की रत्नप्रतिमा ले आया था। खारवेल उस प्रतिमाको वापस लेना चाहते थे। वे राजगृहके निकट पहुँच गये थे। तभी उन्होंने विदेशी आक्रान्ता देमित्रियस द्वारा मथुरा-विजयकी बात सुनी। मगधसे उनकी घरू लड़ाई थी, उससे तो कभी भी निपटा जा सकता था। किन्तु विदेशी आक्रान्ता तो सम्पूर्ण राष्ट्रका शत्रु था। अतः वे मगधको छोड़ राष्ट्रभक्तिसे प्रेरित होकर मथराकी ओर बढ़े। उनके शौर्यपराक्रमकी कथाएँ सुनकर ही देमित्रियस मथुरा छोड़ अपने देश लौट गया। यद्यपि मथुरापर अनेक राजवंशोंने शासन किया, किन्तु लगता है, यादवोंके पश्चात् शक और कुषाणोंने उसे राजधानी होनेका गौरव प्रदान किया। इस काल में जैन मूर्तिकला, स्थापत्य और वास्तुकलाकी बड़ी उन्नति हुई। अनेक मूर्तियों, स्तूपों, आयागपट्टों आदिका निर्माण हुआ। पुरातत्त्व जैन साहित्य में कृत्रिम ही नहीं, अकृत्रिम चैत्यालयों और चैत्यों (मूर्तियों) का विस्तृत वर्णन मिलता है। इस कल्पके तृतीयकालमें, सर्वप्रथम इन्द्रने अयोध्या नगरीकी रचना की थी और नगरीके निर्माणसे भी पूर्व उसने पाँच मन्दिरोंका निर्माण कराया था-चारों कोनोंपर चार और एक मध्यमें। मानव जातिमें सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र, प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरतने अयोध्या, कैलास आदिमें जैन मन्दिरों और मतियोंका निर्माण कराया था। स्तूपों, आयागपट्टों, धर्मचक्रों, सिंहस्तम्भों, स्वस्तिक और प्रतीक चिह्नों आदिका निर्माण भी इसी कालमें प्रारम्भ हो गया था। आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवके समवसरणमें ये सब चीजें बनी हुई थीं। अन्य तीर्थंकरोंके समवसरणोंमें भी इनकी रचना अनिवार्य मानी गयी है। इसका अर्थ यह है कि जैन धर्ममें मूर्ति, मन्दिर, स्तूप आदिके प्रचलनका इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मानव-सभ्यताका इतिहास। १. मद्रास व मैसूर प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक, पृ. २९५ । व्रजका सांस्कृतिक इतिहास, पृ. ३३२ । 'कलिंग जिन' की यह प्रतिमा आजकल जगन्नाथ पुरीके मन्दिरमें विराजमान है। इस मन्दिरमें अन्य वैष्णव मन्दिरोंकी अपेक्षा कई बातें बड़ी अद्भुत हैं। वैष्णव मन्दिरोंमें एकादशीको प्रसाद नहीं बाँटा जाता किन्तु यहाँ बाँटा जाता है। मन्दिरके द्वारपर दि. जैन प्रतिमा है। १२ वर्ष बाद यहाँ विग्रह बदला जाता है। जब विग्रहमें भगवान् स्थापित किये जाते हैं, तब पण्डाकी आँखोंपर पट्टी रहती है। तब वह लकड़ीके खोलमें भगवानको रखता है।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy