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________________ उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ ४५ हरिवंशपुराणसे एक और रोचक तथ्य पर प्रकाश पड़ता है। एक बार देवर्षि नारद हस्तिना - पुर पधारे। पाण्डवोंने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया । वहाँसे निवृत्त होकर नारदजी द्रौपदीके महल में पहुँचे। उस समय द्रौपदी शृंगार करती हुई किसी विचार में मग्न थी । असहिष्णु नारद कब आये और कब क्रुद्ध होकर वहाँसे चले गये, इसका उसे कुछ पता ही नहीं चला। नारद इसे अपना अपमान समझा। उन्होंने इस अपमानका बदला लेनेका निश्चय किया। वे वहाँसे आकाशमार्गं द्वारा पूर्वधातकीखण्डके भरतमें स्थित अंग देशकी अमरकंकापुरी नगरीमें पहुँचे । वहाँके राजा पद्मनाभने उनका बड़ा सत्कार किया। अवसर पाकर नारदजीने द्रौपदीके रूप - लालित्य - और अनिंद्य सौन्दर्यका ऐसा वर्णन किया कि पद्मनाभ द्रौपदीके प्रति अनुरक्त हो उठा । नारदजी द्रौपदी द्वीप, क्षेत्र, नगर और भवनका पता बताकर वहाँसे चल दिये । राजा पद्मनाभने अत्यन्त उत्कण्ठासे संगम नामक देवकी साधना की और उसके द्वारा द्रौपदीको रात्रिमें पलंग समेत उठवाकर अपने महलों में मँगा लिया । प्रातःकाल जागनेपर द्रौपदी विस्मयाच्छन्न भावसे इधर-उधर देख रही थी, तभी पद्मनाभ आया और उसने प्रणय निवेदन करते हुए सारी घटना बता दी । सती द्रौपदीको परिस्थिति समझते देर न लगी । उसने पद्मनाभको बुरी तरह फटकारा । सतीके तेजपूरित वचन सुनकर कामविह्वल पद्मनाभ सिटपिटा गया । उधर हस्तिनापुर में प्रातः काल होनेपर पता चला कि महारानी द्रौपदी पलंग सहित गायब हैं । पाँचों पाण्डवोंने मिलकर परामर्श किया । चारों ओर पता लगाने सैनिक भेजे गये । नारायण श्रीकृष्णको बुलाने के लिए चर भेजा गया । श्रीकृष्ण समाचार सुनते ही आये । किन्तु अभी तक द्रौपदीका कहीं पता नहीं चला था । इतने में नारदजी आ गये । श्रीकृष्णके पूछने पर उन्होंने पूरा पता बता दिया । तब विचार-विमर्शके पश्चात् पाँचों पाण्डव और श्रीकृष्ण धातकीखण्ड के लिए चल दिये । समुद्रतटपर पहुँचनेपर नारायणने समुद्रके अधिष्ठाता देवकी आराधना की और उसकी सहायतासे सब लोगोंने समुद्र पार किया और अमरकंकापुरी जा पहुँचे । पद्मनाभकी सेनाओंसे इन छह महारथियोंका युद्ध हुआ । सेना हार गयी । भयके मारे पद्मनाभ द्रौपदीकी शरण में जा पहुँचा और प्राण - दानकी भिक्षा माँगी । द्रौपदीने अभय दान दिया। तब पद्मनाभने द्रौपदीको आदरसहित पाण्डवोंके पास पहुँचा दिया । सब लोग आनन्दपूर्वक समुद्रमार्ग से वापस लौटे। जब तटपर पहुँच गये, तब भीमने श्रीकृष्ण के साथ मजाक किया । उससे श्रीकृष्ण इतने कुपित हुए कि उन्होंने पाण्डवों को हस्तिनापुरसे निकल जानेका आदेश दे दिया । हस्तिनापुरकी गद्दीपर अभिमन्यु के पुत्रका अभिषेक कर दिया । पाण्डव अपने अनुकूल जनोंके साथ दक्षिण दिशाकी ओर चले गये । वहाँ उन्होंने एक नगरी बसायी, जिसका नाम उन्होंने मथुरा रखा।' यह मथुरा दक्षिण मथुरा कहलाती थी । बादमें उसका नाम मथुरा रह गया । मथुराके एक और यदुवंशी राजासे सम्बद्ध घटनाका उल्लेख मिलता है । उस राजाका नाम साकार ( या सान्तार ) था । उसकी रानीका नाम श्रियला था । उसके जिनदत्त नामक एक पुत्र था। एक बार राजा एक भील कन्यापर मोहित हो गया । उसके षड्यन्त्रसे राजा अपने ! को मारने को तैयार हो गया। तब जिनदत्त छिपकर दक्षिणकी ओर चला गया और हुम्मचमें एक पुत्र १. प्रगत्य दाक्षिण्यभृता सुदक्षिणां, जनेन काष्ठां मथुरां न्यवेशयन् ॥ हरिवंश पुराण ५४।७३
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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