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भारत के दिगम्बर जैन तीर्थं
श्रीकृष्ण और बलभद्रने देखते-देखते समाप्त कर दिया। जब कंस तलवार लेकर श्रीकृष्णको मारने दौड़ा तो श्रीकृष्णने उसे भी यमलोक पहुँचा दिया। उन्होंने राजा उग्रसेनको कारागारसे मुक्त करके उन्हें पुन: मथुराका शासन सौंप दिया ।
जीवद्या अपने पतिकी मृत्यु होनेपर अपने पिता जरासन्धके पास पहुँची और रो-रोकर शोक-समाचार सुनाया । जरासन्ध पुत्रीके मुखसे इस दारुण समाचारको सुनते ही आगबबूला हो गया। उसने अपने पुत्र कालयवनको विशाल सेनाके साथ मथुरापर चढ़ाई करनेके लिए भेजा । किन्तु वह मथुरा के मैदानों में पीठ दिखाकर लौटा। इस प्रकार उसने सत्रह बार यादवोंपर आक्रमण किया । अपने अन्तिम आक्रमण में वह श्रीकृष्ण के हाथों अतुल मालावर्त पर्वतपर मारा गया। उसके बाद जरासन्धने अपने भाई अपराजितको भेजा । उसकी मृत्यु भी श्रीकृष्ण के हाथों हुई ।
सम्राट् जरासन्धके क्रोधका पार नहीं रहा । वह स्वयं विशाल सेना लेकर यादवोंपर आक्रमण करने चल दिया । यादवोंको जब यह समाचार मिला तो उन्होंने मन्त्रणा की और निर्णय किया कि रणनीति के तौरपर इस समय हमें यह नगर छोड़कर कहीं दूर चले जाना चाहिए। इस निर्णय के अनुसार मथुरा, शौरीपुर और वीर्य पुरेके रहनेवाले यदुवंशी चल दिये और पश्चिम दिशामें सागर तटपर द्वारावती नगरी बसाकर रहने लगे । वहाँका शासन-सूत्र नारायण श्रीकृष्णने सम्भाल लिया ।
एक दिन सम्राट् जरासन्धके दरबार में कुछ परदेशी व्यापारी पहुँचे । उन्होंने सम्राट्की सेवामें 'कुछ बहुमूल्य रत्न भेंट किये। उन अनर्घ्य रत्नोंको देखकर सम्राट्को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने व्यापारियोंसे पूछा - 'इतने अमूल्य रत्न तुमने कहाँ प्राप्त किये ?' व्यापारियोंने बतायाद्वारिकापुरीसे । उसके पश्चात् यादववंशियों, महाराज कृष्ण और द्वारिकाकी श्रीसमृद्धि और वैभवकी जो उन्होंने प्रशंसा की तो जरासन्ध विस्मयविमूढ़ हो सोचने लगा कि 'ओह ! जिन शत्रुओंको मैं मृत समझ रहा था, वे तो अभी जीवित हैं और समुद्र के बीचमें कोट, नगर बनाकर सुखपूर्वक रह रहे हैं ।' उसने सेनापतिको बुलाकर सेना सज्जित करनेका आदेश दे दिया तथा अपने सभी मित्र राजाओं, माण्डलिक राजाओं आदिको तुरन्त सेना सहित आनेका आदेश भेज दिया । जब सब तैयारियाँ हो गयीं तो विशाल वाहिनीको लेकर वह चल दिया ।
उधर महाराज श्रीकृष्णको भी अपने चरों द्वारा तथा नारद द्वारा जरासन्धकी तैयारी और सेनाके कूच करने के समाचार मिले । अतः उन्होंने भी अपने सभी मित्र राजाओंको निमन्त्रण भेज दिये । जब राजा लोग अपनी फौजोंको लेकर आ गये तो श्रीकृष्ण भी विशाल सेनाको लेकर चल पड़े ।
दोनों पक्ष की सेनाओं का आमना-सामना कुरुक्षेत्र के विशाल मैदान में हुआ । भीषण युद्ध हुआ । जरासन्धने श्रीकृष्णके ऊपर चक्रका प्रहार किया । किन्तु देवाधिष्ठित चक्र श्रीकृष्णकी प्रदक्षिणा देकर उनकी भुजापर आकर ठहर गया । तब श्रीकृष्णने चक्र घुमाकर जरासन्धके ऊपर फेंका और क्षणमात्रमें उसका सिर कटकर अलग जा पड़ा। जिसने आधे भरतक्षेत्रपर निर्बाध शासन किया, वह भूलुण्ठित हो गया । नारायणने पाञ्चजन्य शंख बजाया । नेमिनाथने शाक्र शंख, अर्जुनने देवदत्त शंख और सेनापति अनावृष्टिने अपना बलाहक नामक शंख फूँका। इस प्रकार यादवोंके पक्षमें युद्धका अन्त हुआ ।
१. उत्तरपुराणके अनुसार मथुरा, शौरीपुर और हस्तिनापुर ये तीन स्थान यादवोंने छोड़े । अर्थात् उस समय मथुरा और शौरीपुर के समान हस्तिनापुरमें भी यादव लोग रहते थे । ( उत्तरपुराण ७१ ।१२ )