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उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं
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एक बार मुनि अवस्था में वे मथुरा पधारे । तपके कारण उनका शरीर अत्यन्त कृश हो रहा था । एक गायका धक्का उन्हें लगा तो वे गिर गये । विशाखनन्द वहाँ वेश्याकी एक छतपर बैठा देख रहा था। उसने विश्वनन्दी मुनिका मजाक उड़ाया। मुनि संयम न रख सके । क्रोधमें आकर उन्होंने बल प्राप्त करनेका निदान किया। मरकर वे महाशुक्र स्वर्ग गये और अनन्तर वे त्रिपृष्ठ नामक पहले नारायण हुए ।
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मथुराके राजा वरुणकी पत्नी रानी रेवतीकी कथा बहुत प्रसिद्ध है । रत्नकरण्ड श्रावकाचारके कर्ता स्वामी समन्तभद्रने उन्हें अमूढदृष्टि नामक चतुर्थं अंगके पालनेवाले व्यक्तियोंमें श्रेष्ठ बताया है । घटना इस प्रकार है— दक्षिणके मेघकूट नगरके नरेश चन्द्राभने आचार्य मुनिगुप्तसे क्षुल्लक दीक्षा ले ली। एक बार क्षुल्लक चन्द्राभने आचार्यसे उत्तर मथुराकी यात्रा करनेकी आज्ञा माँगी । आचार्यने आज्ञा दे दी । उन्होंने मथुरामें रानी रेवती के लिए आशीर्वाद कहा, उण्डरुड़ मुनिके लिए प्रतिवन्दना कही किन्तु जनविश्रुत भव्यसेन मुनिके लिए प्रतिवन्दना नहीं कही । क्षुल्लक महाराजको बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने मथुरा पहुँचकर तीनों व्यक्तियोंकी परीक्षा की। अपने विद्याबलसे ब्रह्मा, विष्णु, महादेव और तीर्थंकर महावीरका रूप बनाकर यथाक्रम मथुरामें प्रकट हुए। हजारों व्यक्ति उनके दर्शनोंके लिए गये । किन्तु अनेक व्यक्तियों द्वारा कहनेपर भी रानी रेवती नहीं गयी । उसे भगवान् जिनेन्द्रदेवकी वाणीपर पूर्ण श्रद्धा थी । 'भगवान् ऋषभदेवने जनताको जीवन-पालन के उपाय बताकर उसकी रक्षा की, अतः वे विष्णु हैं । समवसरणमें भगवान् के मुख चारों दिशाओंमें दिखाई पड़ते थे इस कारणसे तथा उन्होंने कृतयुगका प्रारम्भ किया, इस कारण वे ही ब्रह्मा कहलाते थे । भगवान् ऋषभदेव तो हो चुके, वे अब कहाँ आ सकते हैं । रुद्र ग्यारह होते हैं । वे भी हो चुके, यह बारहवाँ रुद्र कहाँसे आ गया। इसी प्रकार महावीर स्वामीका निर्वाण हुए बहुत समय बीत गया । निर्वाण प्राप्तिके पश्चात् पुनरागमन नहीं होता । अतः दैनंदिन घटित होनेवाली ये घटनाएँ किसी मायावी के चमत्कार हैं, यथार्थ नहीं ।' यह विचार कर रेवती अपने सम्यग्दर्शनपर दृढ़ रही । क्षुल्लकजीने प्रकट होकर रेवतीकी बड़ी प्रशंसा की और आचार्य महाराजका आशीर्वाद कहा ।
क्षुल्लकजीने उण्डरुड़ और भव्यसेन दोनों मुनियोंकी भी परीक्षा की और पाया कि उण्डरुड़ मुनि वस्तुतः भावलिंगी मुनि हैं और भव्यसेन द्रव्यलिंगी हैं । यही कारण था कि आचार्यं महाराज उण्डरुको प्रतिवन्दना कही थी और भव्यसेनको कुछ भी नहीं कहा
यह घटना भगवान् महावीरके बादमें घटित हुई । उस समय मथुरा के स्त्री-पुरुषोंमें जैनधर्मके प्रति गहरी आस्था थी ।
इतिहास
मथुरा भारत अत्यन्त प्राचीन सांस्कृतिक नगरी है। प्राचीन भारतीय साहित्य में इसके कई नाम मिलते हैं । जैसे - मधुपुरी, मधुपुर, मधुरा, मथुरा, महुरा, मधुला, मधूलिका, मधुपना । इसका मूल नाम मधुरा था । यह नाम हरिवंशी राजा हरिवाहनके तेजस्वी पुत्र और प्रतिअर्धचक्रेश्वर रावण जामाता मधु राजाके नामपर पड़ा । वह इस नगरका प्रतापी नरेश था । महापुराण,
१. कुर्वन् घोरं तपो विश्वनन्दी देशान् परिभ्रमन् ।
कृशीभूतः क्रमात् प्राप्य मथुरां स्वतनुस्थितेः । उत्तर पुराण ७४।११२
२. आचार्य नयसेन कृत धर्मामृत ।
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