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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ कुछ समय पश्चात् मुनिराज विधुच्चर प्रभव आदि पाँच सौ मुनियों सहित मथुराके वनमें पधारे। मुनिराज विधुच्चर ग्यारह अंगके पाठी थे। शेष मुनि भी ज्ञानी और घोर तपस्वी थे। रात्रिमें व्यन्तरोंने उनके ऊपर घोर उपसर्ग किया किन्तु धीर वीर मुनि उनसे तनिक भी चलविचल नहीं हुए। वे आत्म-चिन्तनमें लीन रहे । ये उपसर्ग प्राणान्तक सिद्ध हुए। सभी मुनियोंका समाधिमरण हआ। मनिराज विद्यच्चर सर्वार्थसिद्धि विमानमें अहमिन्द्र हए। वे मनुष्य भव धारण करके मुक्ति प्राप्त करेंगे। शेष मुनि भी अपने गतिबन्धके अनुसार विभिन्न स्वर्गों में गये।'
- मुनिराज जम्बूस्वामीके निर्वाण और मुनिराज विद्युच्चरके उपसर्गकी घटनाएं सर्वविश्रुत हैं । इससे पूर्व भगवान् मुनिसुव्रतनाथके कालमें भी यहाँ एक ऐसी ही घटना घटित हुई थी। उस
नारि च्यारि परिहरि करी जंबुदेव शिवपद लह्यो।
ब्रह्म ज्ञानसागर वदति अनंत सुख पद पामियो ।।२२ इसी प्रकार पण्डित दिलसुखने 'अकृत्रिम चैत्यालय जयमाला' लिखी है। उसमें एक छन्द इस प्रकार है
'सन्मथुरायां जम्बू स्वामी। सुद्धान्तिम केवलि शिवगामी' इस प्रकार इन दोनों विद्वानोंने जम्बूस्वामीका निर्वाण मथुरासे माना है । १. व्यतीते चोपसर्गेऽथ मुनिविद्युच्चरो महान् ।
व्यग्रे व्योम्नि यथादित्यो तेजःपुञ्ज इव द्युतः ॥१३॥१६४ प्रातःकालेऽथ संजाते प्रान्त्यसंलेखनाविधौ । चतुर्विधाराधनां कृत्वागमत्सर्वार्थसिद्धिके ॥१३॥१६५ शतानां पञ्च संख्याकाः प्रभवादिमुनीश्वराः । अन्ते सल्लेखनां कृत्वा दिवं जग्मुर्यथायथम् ।।१३।१६९-कवि राजमल्ल कृत जम्बूस्वामिचरितम्
२. मुनिराज विद्युच्चरके संघपर जो देवकृत उपसर्ग हुआ, वह कहाँ हुआ, इस सम्बन्धमें भी शास्त्रोंमें
ऐकमत्य नहीं है । वीर कवि उस स्थानका नाम ताम्रलिप्ति (तमलुक-पश्चिम बंगाल) बताता है। जैसा कि उसने लिखा है
अह सवणसंघसंजुउ पवरु, एयार संगधरु विज्जुचरु ।
विहरंतु तवेण विराइयउ, पुरि तामलित्ति संपाइयउ॥-जम्बूसामिचरिउ १०२४।१३ किन्तु कवि राजमल्ल उस स्थानको मथुरा बताता है ।
अथान्येद्युः स निस्संगो मुनिपञ्चशतैर्वृतः ।
मथुरायां महोद्यानप्रदेशेष्वगमन्मुदा ॥ जम्बूस्वामिचरितम् १२।१२६ प्रसंगवश इन मतभेदोंकी चर्चा आ गयी। किन्तु इतना निश्चित है कि कवि राजमल्लके समयमें भी मथुराकी सिद्धक्षेत्रके रूपमें प्रसिद्धि थी। चौरासीपर जम्बूस्वामीके प्राचीन चरण स्थापित हैं। कवि राजमल्लने स्वयं मथुरामें जम्बूस्वामी और विद्युच्च रादि मुनियोंके पांच सौ एक स्तूप या निषिधिकाएँ देखी थी, जो बहुत प्राचीन थीं। निषिधिकाएँ मुनिजनोंकी समाधि स्थान होती हैं । ३. आचार्य रविषेणकृत पद्मपुराण, पर्व ८९ से ९२ । ।