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________________ ३८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दहेजकी विपुल धनराशिके प्रति आकर्षित होकर उस युगका कुख्यात डाकू विद्युच्चर अपने साथियोंके साथ उसी रात जम्बूकुमारके महलोंमें घुसा। कुमारके माता-पिता, परिजन, दास-दासियाँ धड़कते दिल और आशंकित मनसे उस 'सुहागरात' के परिणामकी प्रतीक्षामें थे। किसीको दहेज या घरकी सुरक्षाका ध्यान नहीं था। विद्युच्चर धनकी टोहमें राजप्रासादके उस कक्षके पास पहुंचा जहाँ वर और वधुओंके बीच वार्तालाप हो रहा था। कुतूहलवश वह भी उस वार्तालापको सुनने लगा। सारी वार्ता सुहागरातमें वर-वधके बीच प्रायः होनेवाले रतिविलासके वार्तालापसे भिन्न थी। राग और विरागके इस हृदयस्पर्शी वार्तालापके प्रभावसे विद्युच्चर इतना अभिभूत हुआ कि प्रकट होकर वह भी उस वार्तालापमें सम्मिलित हो गया। जीत जम्बूकुमारकी हुई। सूर्यको किरणोंने फैलकर जहाँ जगत्का बाह्य अन्धकार दूर किया, जम्बूकुमारकी विरागभरी बातोंने नववधुओं और चोरोंके हृदयका अन्धकार दूर कर दिया। प्रातः होते ही माता-पितासे आज्ञा लेकर जम्बकुमार मुनि-दीक्षा लेने चल दिये और उनके पीछे चारों वधुएँ, माता-पिता, विद्युच्चर और उनके साथी चल पड़े। दीक्षित हो सब तपश्चरण करने लगे। केवलज्ञान-प्राप्तिके पश्चात् भगवान् जम्बूस्वामी कई बार मथुरा पधारे और धर्मोपदेश दिया। अन्तमें मथुराके जम्बूवनमें आकर उनका निर्वाण हुआ। उनके निर्वाणके कारण यह स्थान सिद्धक्षेत्र हो गया। १. इस सम्बन्धमें शास्त्रोंमें कुछ मतभेद प्रतीत होता है। वीर कवि कृत 'जम्बूसामिचरित' में इस सम्बन्ध में लिखा है विउलइरि सिहरि कम्मट्ट चक्षु । सिद्धालय सासय सोक्खपत्तु ॥ सन्धि १०, कडवक २४ इसी प्रकार कवि राजमल्लने 'जम्बूस्वामिचरितम्' में लिखा है ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् । कर्माष्टकविनिर्मुक्तशाश्वतानन्दसौख्यभाक् ॥ इन दोनों ग्रन्योंके अनुसार जम्बूस्वामीका निर्वाण विपुलाचलसे हुआ था। किन्तु निर्वाण काण्डकी गाथामें जिस जम्बूवनका उल्लेख है, वह विपुलाचलपर कभी रहा है, यह विचारणीय है। किन्तु कवि राजमल्लकी निम्न सूचनाके अनुसार मथुरा सिद्ध क्षेत्र रहा है और कविने साह टोडरके साथ सं. १६३० के लगभग इस सिद्धक्षेत्रकी यात्रा की थी। इस सम्बन्धमें वे लिखते हैं अथैकदा महापुर्यां मथुरायां कृतोद्यमः । यात्रायै सिद्धक्षेत्रस्य चैत्यानामगमत्सुखम् ॥ जम्बूस्वामिचरितम् १-७८ भट्टारक ज्ञानसागरजीने 'सर्वतीर्थवन्दना' लिखी है। ज्ञान सागर काष्ठासंघ नन्दीतट गच्छके भट्टारक श्रीभूषणके शिष्य थे। उनका काल १६वीं शताब्दीका अन्तिम चरण और १७वीं शताब्दीका प्रथम चरण माना जाता है। उन्होंने अपने 'सर्वतीर्थ वन्दना' स्तवनमें मथुराके सम्बन्धमें कुछ विशेष लिखते हुए उसे ही जम्बूस्वामीकी निर्वाण भूमि माना है। मथुरा नयर विसाल गोवर्धनगिरिपासई । यमुनातट अभिराम जंबु स्वामि सुखरामई ।। पर हरिया सवि भोग योग अभ्यास सदा रत । जंबूवनइ मझार चोर शत पंच शिवंगत ॥
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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