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________________ उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थं ३७ - भगवान् महावीरके निर्वाण होनेपर उनके प्रमुख गणधर गौतम स्वामीको केवलज्ञान - हुआ। जिस दिन गौतम स्वामीका निर्वाण हुआ, उस दिन सुधर्माचार्यको केवलज्ञान हुआ। जिस दिन सुधर्मस्वामीका निर्वाण हुआ, उस दिन उनके मुख्य शिष्य जम्बूस्वामीको विपुलाचलपर केवलज्ञान हुआ । केवलज्ञानी जम्बूस्वामीने अड़तीस वर्ष तक धर्मका प्रकाश संसारको दिया । वे विहार करते हुए अपने शिष्य समुदायके साथ जम्बूवन में पधारे। वहीं पर योग निरोध कर उन्होंने शेष अघातिया कर्मोंको नष्ट कर निर्वाण प्राप्त किया । प्राचीनकालमें मथुरामें चौरासी वन थे, जिनमें बारह बड़े वन थे और बहत्तर छोटे वन या उपवन थे । ये वन मथुराके चारों ओर दूर-दूर तक फैले हुए थे । इन चौरासी वनोंमें-से 'कुछ वनोंके नामपर अब नगर बस गये हैं, जैसे वृन्दावन, विधिवन, महावन, मधुवन, तालवन, कुमुदवन, बहुलावन, बिहारवन, कामवन, गह्वरवन, वत्सवन, भद्रवन, भाण्डारवन, बेलवन, खेलनवन, लोह - वन, बृहद्वन । इनके अतिरिक्त शेष वन समयके प्रभावसे समाप्त हो गये और उनके स्थानपर खेती होने लगी अथवा गाँव-नगर बस गये । इन चौरासी वनों में एक जम्बूवन भी था । तालवन, कुमुदवन, बेलवन आदिकी तरह उस वनका भी नाम जम्बूवन इसलिए पड़ा कि वहाँ जम्बू वृक्षोंकी बहुलता थी । निश्चय ही यह बहुत गहन और विशाल था । इसी वनमें आकर अन्तिम केवली जम्बूस्वामीने निर्वाण प्राप्त किया था । जम्बूस्वामीका चरित्र अत्यन्त प्रभावक है । वे राजगृह नगरके प्रसिद्ध श्र ेष्ठी अर्हदास के पुत्र थे । उनकी माताका नाम जिनमती था । वे रूपमें कामदेवके समान थे । उनके शरीरमें अपार बल था। उन्होंने अनेक युद्धोंमें शौर्य प्रदर्शित कर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी । चार श्रेष्ठियोंने अपनी-अपनी कन्याओंका वाग्दान जम्बूकुमारके लिए कर दिया। एक बार दक्षिण के प्रबल पराक्रमी विद्याधरं नरेश रत्नचूलको जीतकर जम्बूकुमार मगध सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार के साथ लौट रहे थे। राजगृहके उपवन में उन्होंने पाँच सौ शिष्यों से युक्त सुधर्म स्वामीके दर्शन किये और उनका उपदेश सुना । उपदेश श्रवणकर उनके मनमें वैराग्यकी भावना जागृत हुई । घर पहुँचकर उन्होंने अपने माता-पितासे मुनि-दीक्षा के लिए अनुमति माँगी | माता-पिताने अपने पुत्रको मुनि दीक्षा के निश्चयसे विरत करनेका बड़ा प्रयत्न किया । जम्बूकुमार अपने निश्चयपर अडिग रहे यह समाचार उन वाग्दत्ता कन्याओंके माता-पिता के कानों में पहुँचा । वे बिना विलम्ब किये अर्हदास श्र ेष्ठीके पास दौड़े आये और उनसे परामर्श करके जम्बूकुमारको इस बातपर राजी कर लिया कि आज ही चारों कन्याओंके साथ उनका विवाह हो जाये । यदि उन्हें दीक्षा ही लेनी हो तो विवाह के पश्चात् कभी भी ले सकते हैं । तदनुसार उसी दिन चारों श्रेष्ठियोंने अपनी-अपनी कन्याओं का विवाह जम्बूकुमारके साथ कर दिया और दहेज में अपार धन दिया । सम्भवतः उन्हें यह विश्वास था कि देवांगनाओं जैसी रूपवती नवपरिणीता स्त्रियोंकी मोहिनीके पाशमें युवक जम्बूकुमारका मन अवश्य उलझ जायेगा । किन्तु उनकी युक्ति सफल न हो सकी। चारों वधुओंने रात भर अपने विरागी पतिको रिझाने और उन्हें अपने संकल्पसे विरत करनेके लिए हाव-भाव विलासके अपने सभी अचूक कहे जानेवाले अस्त्र अजमाये, किन्तु स्वामीके अडिग संकल्पकी शिला टकराकर वे सब व्यर्थ हो गये । १. तिलोय पण्णत्ति, चतुर्थ अधिकार, गाथा १४७६-७७ ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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