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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिरके चारों ओर धर्मशाला है, जिसका द्वार पूर्व दिशामें है। धर्मशालाके बाहर पक्का चबूतरा और एक पक्का कुआँ है जो मन्दिरकी सम्पत्ति है। धर्मशालाके दक्षिणकी ओरके कमरोंके बीच में एक कमरेमें नवीन मन्दिर है, जिसमें दो वेदियाँ हैं। बड़ी वेदीमें मूलनायक चन्द्रप्रभु भगवान्की प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त तीन पाषाणकी तथा एक धातुकी प्रतिमा है। इनमें एक पाषाण प्रतिमा भूगर्भसे निकली थी। यह एक भूरे पाषाण-खण्डमें उकेरी हुई है जो प्रायः पाँच अंगुलकी है।
छोटी वेदीमें शीतलनाथ भगवान्की खड्गासन, पाषाणकी दो पद्मासन और एक पीतलकी खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। मानस्तम्भका शिलान्यास
लगभग १५ वर्ष पहले यहाँ क्षुल्लक सुमतिसागरजी पधारे थे। उन्होंने इस क्षेत्रपर मानस्तम्भके निर्माणकी प्रेरणा दी। किन्त उस समय यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सका। सन १९७१ में स्वर्गीय आचार्य शिवसागरजीके शिष्य मुनि श्री वृषभसागरजी महाराजने दिल्ली चातुर्मासके समय लोगों को इस कार्य के लिए पुनः प्रेरित किया। फलतः ८ नवम्बर सन् १९७१ को महाराजजीके तत्त्वावधानमें मन्दिरके सामने मानस्तम्भका शिलान्यास हो गया। यहाँ मकरानेके संगमरमरके मानस्तम्भ-निर्माणकी योजना है, जिसका कार्य चाल है। वार्षिक मेला
____ यहाँ प्रति वर्ष फाल्गुन शुक्ला ८-९-१० को मेला भरता है और आसौज कृष्णा १ को जलयात्रा होती है।
यहाँ की जलवायु बड़ी स्वास्थ्यवर्धक है। व्यवस्था
यहाँकी व्यवस्था स्थानीय और बाहरके जैनोंको एक कमेटी द्वारा होती है।
मथुरा सिद्ध क्षेत्र
मथुरा प्राचीन कालसे तीर्थक्षेत्र रहा है। प्राकृत निर्वाणकाण्डमें एक गाथा निम्न प्रकार है
महराए अहिछित्ते वीरं पासं तहेव वंदामि । -
जम्बु मुणिन्दो वन्दे णिव्वुई पत्तोवि जंबुवणगहणे ॥ अर्थात् मैं मथुराके महावीर भगवान् और अहिच्छत्रके पार्श्वनाथ भगवान्की वन्दना करता हूँ। तथा गहन जम्बू वनमें निर्वाण प्राप्त करनेवाले जम्बू मुनिराजकी वन्दना करता हूँ।
-मथुरा शूरसेन जनपदकी राजधानी थी। शूरसेन जनपदमें महावीर भगवान्का समवसरण आया था और उनके उपदेशोंको सुनकर नगर सेठ जिनदत्तके पुत्र अर्हद्दास, मथुराके नरेश उदितोदय (अथवा भीदाम), उसके मन्त्री, राज्याधिकारी और अनेक नागरिक भगवान महावीरके धर्मानुयायी बन गये।
१. व्रजका सांस्कृतिक इतिहास-श्री प्रभुदयाल मीतल, पृ. ३४५ ।