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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
पिता रायसाहब लाला प्रभुलाल जैन मेरठ निवासीके प्रबन्धसे वीर नि. सं. २४४३ वि. सं. १९७४
में कराया ।
इससे आगे चलकर एक कम्पाउण्ड में मल्लिनाथ भगवान्की टोंक है। इसमें केवल स्वस्तिक बना हुआ है । इसका जीर्णोद्धार लाला छेदालाल प्रद्युम्नकुमार सुपुत्र लाला मटरूमल जैन जारचा ( बुलन्दशहर) निवासीने वि. सं. २००६ में कराया ।
दूसरी नशियाके पास श्वेताम्बर नशिया है । आसपास में कई समाधि स्थान ( छतरी ) बने हुए हैं, जो अज्ञात दिगम्बर जैन मुनियोंके हैं ।
क्षेत्रका वार्षिक मेला
दिगम्बर जैन समाजका वार्षिक मेला कार्तिकी (अष्टाह्निका) शुक्ला ८ से १५ तक होता है । इसमें हजारों यात्री आते हैं । यह बहुत प्राचीन समयसे होता आ रहा है । पहले यह केवल तीन दिनका होता था, किन्तु अब यह आठ दिनका होता है । कार्तिकी पूर्णिमाको यहाँ रथयात्रा निकलती है । इसके अतिरिक्त फाल्गुनी अाह्निका और ज्येष्ठ कृष्णा १४ को भी छोटे मेले होते हैं । श्वेताम्बर अपना मेला अक्षय तृतीयाको और हिन्दू वैशाख शुक्ला सप्तमीको करते हैं । शिकार - निषेध
लगभग पचास वर्ष पूर्व जैनोंके प्रयत्नसे सरकारने इस पवित्र तीर्थंकर-भूमि ( तीर्थं ) में किसी प्रकारका शिकार खेलना निषिद्ध घोषित कर दिया था, जो अब तक लागू है । यह सरकारी आज्ञा पाषाणोंपर अंकित करा दी गयी है ।
एक रोचक परम्परा
सरकारी कागजातके अनुसार मौजा हस्तिनापुर दो पट्टियों या महालों में विभाजित है - पट्टी कौरवान और पट्टी पाण्डवान । हस्तिनापुरका उत्तरी भाग, जो पट्टी कौरवान कहलाता है, दिगम्बर जैन मन्दिरकी सम्पत्ति है । दक्षिणी भाग, जो पट्टी पाण्डवान कहलाता है, का बहु-भाग श्वेताम्बर मन्दिर के अधीन है । अधिकांश जैन इमारतें और अवशेष पट्टी कौरवानमें स्थित हैं, जब कि मध्यकालीन अवशेष और हिन्दू स्मारक प्रायः पट्टी पाण्डवानमें हैं ।
इन दोनों महालों के बीचमें एक पक्का मार्ग ही दोनों महालोंकी विभाजक रेखा है । बागमें बन्दर बहुत हैं । एक मनोरंजक बात यह है कि ये बन्दर भी दो विरोधी दलोंके रूपमें बँटे हुए हैं । एक दल रेखाके इस ओर रहता है और दूसरा दल उस ओर । कोई दल एक दूसरेकी रेखाका अतिक्रमण नहीं कर सकता । करनेपर युद्ध छिड़ जाता है ।
पुरातत्त्व
प्राचीन काल में हस्तिनापुरकी चहारदीवारीके निकटसे गंगा नदी बहती थी । लेकिन अब वह सात मील दूर चली गयी है । और अब उसीकी एक शाखा - जो बूढ़ी गंगा कहलाती है
१. डॉ. ज्योतिप्रसाद, हस्तिनापुर