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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
२७ वदी १३के मेलेमें दिल्ली निवासी राजा'हरसुखराय, जो मुगल बादशाह शाह आलमके खजांची थे, ने मन्दिर-निर्माणके लिए अपनी स्वीकृति दे दी। यह इलाका उस समय बहसूमेके गूजर नरेश नैनसिंहके अधीन था। शाहपुरके गूजर यहाँ जैनमन्दिर निर्माणके अकारण विरोधी थे। राजा नैनसिंहके एक मित्र शाहपुर निवासी लाला जयकुमारमल थे। राजा हरसुखरायने उनसे अनुरोध किया कि आप राजा नैनसिंहसे कहकर यह कार्य करा दीजिए। उसी रातको लाला जीने राजा साहबसे इसकी चर्चा की और कहा कि राजा हरसुखरायने इसके लिए भरी पंचायतमें अपनी पगड़ी सबके समक्ष उतारकर रख दी है। राजा नैनसिंह राजा हरसुखरायके भी बड़े कृतज्ञ थे क्योंकि वे एक बार शाही खजानेके कर्जके एक लाख रुपये समयपर अदा नहीं कर सके थे, जिसको राजा हरसुखरायने स्वयं अदा किया था। बस, उन्होंने मन्दिर-निर्माणकी स्वीकृति दे दी। इतना ही नहीं, लाला जयकुमारमलके अनुरोधपर उन्होंने मन्दिरका शिलान्यास भी अपने हाथोंसे स्वीकार कर लिया।
दूसरे दिन राजा हरसुखराय, लाला जयकुमारमल और सैकड़ों जैनाजैन व्यक्तियोंकी उपस्थितिमें राजा नैनसिंहने धरातलसे चालीस फुट ऊँचे टीलेपर दिगम्बर जैन मन्दिरकी नींवमें अपने हाथोंसे पाँच ईंटें रखीं। इसके बाद राजा हरसखरायके धनसे लाला जयकूमारमलकी देखरेख में पाँच वर्षमें विशाल शिखरबन्द दिगम्बर जैन मन्दिरका निर्माण हुआ। कहते हैं, जब कलशारोहण
और वेदी-प्रतिष्ठाका अवसर आया तो राजा हरसुखरायने पंचायतसे प्रार्थना की-'पंच सरदारो! मेरी जितनी शक्ति थी, मैंने उतना कर दिया। मन्दिर आप सबका है। अतः आप लोग भी इसके लिए सहायता करें ।' उस समय जो लोग वहाँ उपस्थित थे, उनके सामने एक घड़ा रखा गया और सबने अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार उस घड़ेमें दान डाला। किन्तु फिर भी यह राशि अत्यन्त अल्प थी। मन्दिरके निमित्त सभी जैन भाइयोंसे इस तरह रुपया एकत्रित करनेमें राजा साहबका उद्देश्य मन्दिरको सार्वजनिक बनाना और अपनेको अहंभावसे दूर रखना था।
तत्पश्चात् संवत् १८६३ में कलशारोहण और वेदी-प्रतिष्ठाका कार्य राजा साहबने समारोहपूर्वक कराया। उस समय मन्दिरमें देहलीसे लायी हुई भगवान् पार्श्वनाथकी बिना फणवाली प्रतिमा विराजमान की गयी। वि. सं. १८९७ में लाला जयकुमारमलने मन्दिरका विशाल सिंहद्वार बनवाया।
इस मन्दिरके चारों ओर धर्मशाला बनी है। मन्दिरके बाहर भी कई दिगम्बर जैन धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। मन्दिरमें बहुत सा काम राजा हरसुखरायके पुत्र राजा सुगनचन्दने कराया
था।
सन् १८५७ के गदरके समय गूजर लोगोंने इस मन्दिरको लूट लिया। वे लोग मूलनायक प्रतिमाको भी उठाकर ले गये। फलतः दिल्ली धर्मपुराके नये मन्दिरसे वि. संवत् १५४८ में भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित भगवान् शान्तिनाथकी मूर्ति यहाँ लाकर मूलनायकके रूपमें विराजमान की गयी। तबसे यह मन्दिर शान्तिनाथ मन्दिर कहा जाने लगा। गदरके बाद भी एक बार फिर लुटेरोंने मन्दिरको लूटा। यह मन्दिर उस केन्द्रीय टीलेपर बनाया गया था, जहाँ सम्भवतः पहले भी कोई जैन मन्दिर था।