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________________ २६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ रहे। भीषण अकाल पड़ा। तभी गंगामें भी भीषण बाढ़ आ गयी। उससे हस्तिनापुरका विनाश हो गया। इसके बाद गंगा इस नगरसे पूर्वकी ओर कई मील खिसक गयी। इससे नगरको जल मिलना भी दुर्लभ हो गया। फलतः निचक्षुने यहाँसे अपनी राजधानी हटाकर प्रयागके निकट कौशाम्बीमें बनायी। यह हस्तिनापुर नगरका प्रथम विनाश था। इसके पश्चात् यह नगर फिर बसा। किन्तु कुरुवंशके स्थानपर इसपर नागजातिका आधिपत्य हो गया। सम्भवतः नागजातिके आधिपत्य कालमें ही भगवान् पार्श्वनाथका समवसरण यहाँ आया था । भगवान् महावीरका भी समवसरण यहाँ आया और भगवान्के दिव्य उपदेशोंको सुनकर वहाँके राजा शिवराजने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। भगवानकी स्मतिमें यहाँ एक स्तपका भी निर्माण किया गया था। यह बस्ती ईसा पूर्व ३०० तक आबाद रही। फिर किसी भीषण अग्निकाण्डके कारण नष्ट हो गयी। तीसरी बार जैन सम्राट् सम्प्रतिने इसे आबाद किया। यह सम्राट अशोकका पौत्र था और जैनधर्मका अनुयायी था। इसने यहाँ अनेक जिनमन्दिरोंका निर्माण कराया। यह बस्ती २०० ई. तक रही। इसके बाद यह चौथी बार १०-११वीं शताब्दीमें भारवंशी राजा हरदत्तरायके समय बसायी गयी और १४वीं शताब्दी तक रही। सन् १६०० में हिन्दी जैन साहित्यके अमर कवि बनारसीदासने 'हस्तिनापुरकी सकुटुम्ब यात्रा की थी, इस प्रकारका विवरण उनके प्रसिद्ध आत्मचरित ग्रन्थ 'अर्धकथानक' में मिलता है। कविवर बनारसीदास शाहजहाँ बादशाहके समकालीन थे। 'अर्धकथानक' से प्रतीत होता है कि बनारसीदासके समय यहाँ जैन यात्री तीर्थ यात्राके लिए बराबर आते रहते थे। प्राचीनकालमें यहाँ स्तूपोंके अतिरिक्त अनेक जैनमन्दिरों और निषधिकाओं ( नशिया ) का भी निर्माण हुआ था। सम्भवतः उनका भाग्य भी नगरके विध्वंस और निर्माणके इतिहाससे रहा। जनमन्दिर निर्माणका इतिहास कई राजनीतिक और प्राकृतिक कारणोंसे हस्तिनापुर मध्यकालके पश्चात् शताब्दियों तक उपेक्षित सा रहा। इसी उपेक्षाके परिणामस्वरूप. लगता है, यहाँके प्राचीन मन्दिर और निषधिकाएँ नष्ट हो गयीं। किन्तु तीर्थ स्थान तो यह बराबर बना रहा और भक्त लोग यात्राके लिए आते रहे। १८-१९वीं शताब्दीमें यहाँ मन्दिर और नशियोंकी हालत बड़ी जीर्ण-शीर्ण थी। सभी लोगोंकी इच्छा थी कि यहाँ मन्दिर अवश्य बनना चाहिए। लोगोंकी प्रार्थना पर सं. १८५८ ( सन् १८०१ ) ज्येष्ठ १. मटचीहतेषु कुरुष्वाटिक्या सह जाययोपस्तिह चाक्रायण इभ्यग्रामे प्रद्राणक उवास ॥१॥-छान्दोग्य उपनिषद् अ. १, खण्ड १० -ओलोंकी वर्षासे अन्नका नाश होनेपर कुरुदेशमें अकाल पड़ जाने के कारण चक्रके पुत्र उपस्तिने अपनी स्त्री आटिकीके साथ ( अन्न न मिलनेके कारण ) मरणासन्न दशामें हाथीवानोंके ग्राममें आकर आश्रय लिया। २. अधिसीम कृष्णपुत्रो निचक्षुर्भविता नृपः । यो गंगयापहृते हस्तिनापुरे कौशाम्ब्यां विधत्स्यति ॥ रमेशचन्द्र मजूमदार कृत 'प्राचीन भारत', पृ. ५१ । पार्जीटर-Ancient Indian Historical Tradition ( 1922 ), page 285 कविवर बनारसीदास-डॉ. रवीन्द्रकुमार जैन, पृष्ठ ११२ ३.
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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