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________________ २४ . भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ने उन्हें कीलित कर दिया। प्रातःकाल होनेपर राजाको समाचार मिला तो राजाने मन्त्रियोंको अपमानित कर राज्यसे निकाल दिया। __चारों मन्त्री घूमते-फिरते हस्तिनापुर पहुँचे । वहाँके कुरुवंशी राजा पद्मने उन्हें अपना मन्त्री बना लिया। एक बार मन्त्रियोंकी युक्तिसे राजाने अपने शत्रु सिंहबल राजाको पकड़ लिया । राजाने प्रसन्न होकर बलिसे कहा-"मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ, कोई वर माँग लो।" बलिने सोचकर कहा"अभी आवश्यकता नहीं है। जब आवश्यकता होगी, तब माँग लूंगा।" किसी समय विहार करते हुए अकम्पनाचार्य मुनि संघके साथ हस्तिनापुर पधारे और वहीं वर्षायोग धारण करके नगरके बाहर विराजमान हो गये । तब बलिने अन्य मन्त्रियोंसे सलाह करके राजा पद्मसे निवेदन किया-'महाराज, आपने मुझे जो वर दिया था, मैं उसके फलस्वरूप सात दिनका राज्य चाहता हूँ।' राजाने स्वीकार करके उसे सात दिनके लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं महल में रहने लगा। बलिने राज्य प्राप्त करके मुनिसंघपर घोर उपसर्ग किया। तब सभी मुनियोंने नियम ले लिया कि यदि उपसर्ग दूर होगा तो आहार-विहार करेंगे, अन्यथा नहीं करेंगे। और वे ध्यानस्थ हो गये। उस समय राजा पद्मके छोटे भाई विष्णुकुमार मुनि बनकर घोर तपस्या कर रहे थे। उन्हें विक्रिया आदि कई ऋद्धियाँ प्राप्त हो चुकी थीं। उनके गुरु मुनि श्रुतसागर उस समय मिथिला नगरीमें विराजमान थे। निमित्तज्ञानसे उन्हें इस उपसर्गका हाल मालूम हो गया। उनके मुखसे अकस्मात् ये शब्द निकले-'आज मुनिसंघपर दारुण उपसर्ग हो रहा है। उस समय उनके पास पुष्पदन्त नामक एक क्षुल्लक बैठे हुए थे। उनके पूछनेपर गुरुने बताया-'इस उपसर्गको केवल विष्णुकुमार मुनि दूर कर सकते हैं। उन्हें विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हो गयी है, इसका ज्ञान ही नहीं था। उन्होंने परीक्षा की, तब विश्वास हुआ। वे तत्काल हस्तिनापुर पहुंचे और राजा पद्मसे मिले। जब राजासे वरदानकी बात ज्ञात हुई तो मुनि विष्णुकुमार वामन ब्राह्मणका रूप धारण कर बलिके पास यज्ञ-मण्डपमें पहुँचे। बलिने कहा-'महाराज! आपकी जो इच्छा हो, माँग लीजिए।' वामन रूपधारी विष्णुकुमार बोले-'मुझे कुछ भी इच्छा नहीं है। किन्तु आपका आग्रह ही है तो मुझे रहनेके लिए तीन पग धरती दे दीजिए।' बलिने जल लेकर संकल्प किया और कहा कि आप अपने पाँवोंसे नाप लीजिए। विष्णुकुमारने अपना शरीर बढ़ाया। उन्होंने एक पग सुमेरु पर्वतपर रखा, दूसरा मानुषोत्तर पर्वतपर रखा। तीसरे पगके लिए स्थान ही नहीं बचा, कहाँ रखें। तीनों लोकोंमें क्षोभ व्याप्त हो गया। देव और गन्धर्वोने मुनि विष्णकूमारकी स्तुति की। देवोंने आकर मनियोंका उपसगं दूर किया। बलि भयके मारे विष्णुकुमारके चरणोंमें गिर पड़ा और उसने दीनतापूर्वक अपने अपराधकी क्षमा माँगी। सब लोगोंने अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियोंकी पूजा की। विष्णुकुमारने अपने गुरुके पास जाकर प्रायश्चित्त लिया और घोर तपस्या करके निर्वाण प्राप्त किया। इस घटनाकी स्मृतिस्वरूप रक्षा-बन्धनका महान् पर्व प्रचलित हो गया जो श्रावण शुक्ल पूर्णिमाको उल्लासपूर्वक मनाया जाता है। -भगवान् मुनिसुव्रतनाथके समय नागपुर ( हस्तिनापुर ) का राजा बहुवाहन था। उसकी पुत्री मनोहरा थी। उसका विवाह साकेतपुरीके राजा विजयके पुत्र वज्रबाहुके साथ हुआ । विवाहके बाद जब वह अपनी पत्नीको लेकर जा रहा था, तब वसन्तगिरिपर एक ध्यानस्थ मुनिको देखा, उनका उपदेश सुना। सुनकर बहुत प्रभावित हुआ और उसने २६ अन्य राजकुमारोंके साथ
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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