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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ सुलोचनाके सतीत्व और शीलके चमत्कारपूर्ण प्रभावका वर्णन जैन वाङ्मयमें किया गया है। विवाहके पश्चात् जब गंगाके किनारे-किनारे जयकुमार सुलोचनाको लेकर सेनासहित जा रहा था, उस समय एक घटना घटी । जयकुमारने गंगा पार करनेके लिए हाथीको गंगामें प्रवेश कराया । जब हाथी सरयू और गंगाके संगमपर पहुँचा तो पूर्व जन्मकी वैरी कालीदेवीने मगरका रूप धारण कर हाथीको पकड़ लिया। उस समय सुलोचनाने भक्तिभावसे णमोकार मन्त्र पढ़ा। उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर गंगादेवीने आकर उनकी प्राण-रक्षा की।
इसके पश्चात् तो हस्तिनापुरमें बड़े-बड़े महापुरुष होते रहे और लोकपर प्रभाव डालनेवाली घटनाओंका तांता लगा रहा। भगवान् धर्मनाथ और शान्तिनाथके अन्तरालमें हुए चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमारने इसे अपनी राजधानी बनाया। सोलहवें, सत्रहवें और अठारहवें तीर्थंकर भगवान् शान्तिनाथ, भगवान् कुन्थुनाथ और भगवान् अरहनाथ यहींपर उत्पन्न हए। भगवान ऋषभदेवसे भगवान् महावीर तकके कालमें जो बारह चक्रवर्ती हए हैं, उनमें पाँचवें, छठे और सातवें चक्रवर्ती ये ही तीनों तीर्थंकर थे। इन तीनोंने ही भरत क्षेत्रके छहों खण्डोंको विजय करके एकछत्र साम्राज्यकी स्थापना की और हस्तिनापुरको सम्पूर्ण भरत क्षेत्रका राजनीतिक केन्द्र बनाया। तीनों तीर्थकरोंके नामपर यहाँ पश्चाद्वर्तीकालमें एक-एक स्तूपका भी निर्माण हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस नगरको यह महान् गौरव प्राप्त हुआ कि यहाँ तीन तीर्थंकर और चार चक्रवर्ती हुए। इस दृष्टिसे हस्तिनापुरको अयोध्याके पश्चात् दूसरा स्थान प्राप्त है।
जैन पुराणोंमें हस्तिनापुरसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्य कई कथाएँ मिलती हैं।
-यहाँ गुरुदत्त नामक नरेश थे। यथासमय उन्हें संसारसे वैराग्य हो गया। द्रोणीमती पर्वतकी तलहटीमें वे ध्यानारूढ़ थे। एक भीलने उनके ऊपर घोर उपसर्ग किया। उनके शरीरपर चिथड़े लपेटकर आग लगा दी। मनि आत्मध्यानमें लीन रहे। उन्हें केवलज्ञान हो गया और वहींसे मुक्त हुए।
-यहींपर राजा पद्मके बलि आदि मन्त्रियोंने आचार्य अकम्पन और उनके संघके सात सौ मुनियोंको प्राणान्तक कष्ट दिया था और उसका निवारण भी पद्म राजाके भाई मुनि विष्णुकुमारने अपनी विक्रिया ऋद्धि द्वारा वामन ब्राह्मणका रूप धारणकर किया था। यह घटना इस प्रकार है
उज्जयिनी नरेश श्रीधर्माके चार मन्त्री थे-बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद । एक बार महामुनि अकम्पन सात सौ मुनियोंके संघके साथ आकर उज्जयिनीके बाह्य वनमें विराजमान हुए। राजा श्रीधर्माको मुनि-संघके आगमनका समाचार मिला तो वह उनके दर्शनोंके लिए जाने लगा। जैन मुनियोंसे सहज द्वेष रखनेवाले मन्त्रियोंने महाराजको मुनियोंके सम्बन्धमें यद्वा तद्वा कहकर रोकना चाहा फिर भी वह दर्शनार्थ चला गया। मन्त्रियोंको भी साथमें जाना पड़ा। आचार्य महाराजने मुनिसंघको मौन रखनेका आदेश दे रखा था। जब राजा दर्शन करके लौटा तो मार्गमें श्रुतसागर नामक मुनि नगरसे आते हुए मिले। मन्त्रियोंने उनसे अनावश्यक विवाद छेड़ दिया । मुनि श्रुतसागरको गुरुकी आज्ञाका पता नहीं था। उन्होंने वाद-विवादमें मन्त्रियोंको निरुत्तर कर दिया।
फलतः उसी दिन रात्रिमें गुरुकी आज्ञासे मुनि श्रुतसागर उसी स्थानपर आये और प्रतिमायोग धारण कर बैठ गये। मन्त्री अपनी पराजयके कारण बहुत क्रोधित थे। अतः वे उक्त मुनिको मारनेके लिए रात्रिमें आये और उन्होंने मुनिपर तलवारसे जैसे ही वार करना चाहा कि वनदेवता
१. आदिपुराण ४५।१४२-१५०