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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ वाला और दो हाथवाला है । बायें हाथ में बिजीरा और दायाँ हाथ वरद मुद्रा में है। • सिद्धायिका-सुवर्ण वर्णवाली, भद्रासनमें बैठी हुई, सिंहकी सवारी करनेवाली और दो भुजावाली है । बायें हाथमें पुस्तक और दायाँ हाथ वरद मुद्रा में है।
__मांगलिक चिह्न-जैन मन्दिरों में मांगलिक चिह्न भी अंकित मिलते हैं। वे चिह्न चरणचौकी, वेदी, स्तम्भ, सिरदल और द्वारपर प्रायः मिलते हैं। जैसे स्वस्तिक, मीन-युगल, लक्ष्मीका अभिषेक करता गज-युगल, कमलपुष्प, पुष्पमाला, अष्टप्रातिहार्य, चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, शृंखलाओं में लटके हुए घण्टे, घण्टियोंकी वन्दनमाला, पताका, धर्मचक्र, सिंह, मकर, गंगा-यमुना, नाग, कीचक आदि। ध्वजाओंपर मयूर, हंस, गरुड़, माला, सिंह, हाथी, मकर, कमल, बेल और चक्रके चिह्न रहते हैं।
मानस्तम्भ-मन्दिर समवसरणके लघु प्रतीक हैं। समवसरणमें १२ श्रीमण्डप और उनके मध्यमें गन्धकुटी होती है, जिसमें अष्टप्रातिहार्य युक्त भगवान् विराजमान होते हैं। समवसरणके द्वारपर धर्मचक्र रहता है और आगे मानस्तम्भ रहता है। यही रचना मन्दिरमें रहती है। प्राचीन कालमें मन्दिरके साथ मानस्तम्भ अवश्य रहता था। मौर्य अथवा शक, कुषाण कालका कोई मन्दिर आज उपलब्ध नहीं है। सब ध्वस्त हो गये। गुप्त कालका एक मानस्तम्भ ककुभग्राम (कहाऊँ) में अब भी अपने मूल रूपमें सुरक्षित है। देवगढ़में भी प्राचीन मानस्तम्भ मिलते हैं। कुछ मानस्तम्भोंपर अभिलेख भी हैं, जिनके अनुसार इनका निर्माण काल संवत् ११०८, ११११, तथा ११२१ है।
स्तूप-समवसरणमें स्तूप भी होते हैं। स्तूप कई प्रकार के होते हैं । लोक स्तूप, मध्यलोक स्तूप, मन्दर स्तूप, कल्पवास स्तूप, ग्रैवेयक स्तूप, अनुदिश स्तूप, सर्वार्थसिद्धि स्तूप, सिद्ध स्तूप, भव्यकूट स्तूप, प्रमोद स्तूप, प्रबोध स्तूप । प्राचीन कालमें स्तूपोंकी रचना होती थी। मथुराके बौद्ध स्तूपके सम्बन्धमें तो ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि वह सुपार्श्वनाथ तीर्थंकरके कालमें निर्मित हुआ था। फिर पार्श्वनाथ तीर्थकरके कालमें उसका पुनरुद्धार हुआ। प्रथम-द्वितीय शताब्दीके लोग इसकी अद्भत कलाको देखकर इसे देवनिर्मित कहने लगे थे। महमूद गजनवीके काल तक तो यह निश्चित रूपमें था। इसके पश्चात् इसके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं मिलता। सम्भवतः वह नष्ट कर दिया गया। इस स्तूपके अतिरिक्त और ५१४ स्तूप मथुरामें थे, साहित्यमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं । ये भी किसी आक्रान्ताने मुगल काल में नष्ट कर दिये।
मथुराके स्तूपोंके अतिरिक्त उत्तरप्रदेशमें अन्य कहीं स्तूप बनाये गये, ऐसा कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। सम्राट् सम्प्रतिके सम्बन्धमें यह धारणा व्याप्त है कि उसने जैनधर्मके लिए वैसा ही कार्य किया, जैसा अशोकने बौद्धधर्मके लिए किया। फिर भी क्या बात है कि भारतमें एक भी स्तम्भ और स्तूप सम्प्रतिका नहीं मिला। जितने मिले, सब अशोकके। इस सम्बन्धमें अवश्य भूल हुई है। इतिहासकारों और पुरातत्त्ववेताओंको इस सम्बन्धमें एक बार पुनः सूक्ष्म अन्वेषण करना होगा।
सारनाथ संग्रहालयमें एक पाषाण स्तम्भके शीर्षपर चारों दिशाओंमें चार सिंह बने हुए हैं। उनके नीचे क्रमशः वृषभ, अश्व, सिंह और गज बने हुए हैं। इन पशुओंके बीचमें धर्मचक्र बने हैं। धर्मचक्रमें चौबीस आरे हैं। सिंहचतुष्टय और धर्मचक्र जैन मान्यताके अधिक निकट हैं।