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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
बैल
हाथी
सेही
सहित ही मिलती हैं। उत्तर भारतमें भी जो मूर्तियाँ शिलाफलकपर बनायी जाती थीं, उनमें अष्ट प्रातिहार्य मिलते हैं। बादमें ये अलगसे बनाये जाने लगे।
तीर्थंकरोंके चिह्न-तीर्थंकरोंके चिह्न चरण-चौकीपर अंकित रहते हैं। ऋषभदेवकी कुछ जटायुक्त प्रतिमाएँ भी मिलती हैं। जटाएँ प्रायः कन्धोंपर होती हुई छाती और पीठपर लटकती मिलती हैं। किन्हीं प्रतिमाओंमें जटाओंका जूट या गुल्म भी प्राप्त होता है। जटावाली प्रतिमाएँ मथुरा, देवगढ़, चन्दवार, शौरीपुर, इलाहाबाद, वाराणसी आदिमें विद्यमान हैं। सुपार्श्वनाथकी प्रतिमापर कहीं कहीं सर्पफणावली भी मिलती है, किन्तु उन सर्पफणोंकी संख्या पाँच होती है। पार्श्वनाथ प्रतिमा अधिकांशतः सर्पफण मण्डलसे मण्डित ही प्राप्त होती है और प्रायः फणोंकी संख्या सात होती है। कहीं-कहीं सहस्रफणवाली मूर्ति भी मिलती है। कुछ पार्श्वनाथ प्रतिमाओंके पीछे सर्पकुण्डली भी मिलती है। कहीं-कहीं नेमिनाथ अम्बिकादेवीके शीर्षपर और पार्श्वनाथ पद्मावतीके सर्पफण मण्डित शीर्षपर विराजमान पाये जाते हैं। तीर्थंकरोंके चिह्न क्रमशः इस प्रकार हैंतीर्थकरोंके चिह्न १. ऋषभदेव
१३. विमलनाथ
सूअर २. अजितनाथ
१४. अनन्तनाथ ३. सम्भवनाथ घोड़ा
१५. धर्मनाथ वज्रदण्ड ४. अभिनन्दननाथ बन्दर
१६. शान्तिनाथ हिरण ५. सुमतिनाथ चकवा
१७. कुन्थुनाथ बकरा ६. पद्मप्रभ कमल
१८. अरनाथ मछली ७. सुपार्श्वनाथ साथिया
१९ मल्लिनाथ कलश ८. चन्द्रप्रभ अर्द्धचन्द्र
२०. मुनिसुव्रतनाथ कछवा ९. पुष्पदन्त मगर
२१. नमिनाथ नीलकमल १०. शीतलनाथ कल्पवृक्ष
२२. नेमिनाथ ११. श्रेयान्सनाथ गैण्डा
२३. पार्श्वनाथ सर्प १२. वासपूज्य भैंसा
२४. महावीर सिंह शासन-देवता-तीर्थंकरोंके सेवक एक यक्ष और एक यक्षी होते हैं। इन्हें शासन-देवता भी कहा जाता है। प्राचीन कालमें शासन-देवताओंकी मूर्ति मन्दिरके द्वारपर रखी जाती थी। जब हिन्दू और बौद्धोंमें देवी-देवताओंकी मान्यता बढ़ी तो उसका प्रभाव जैनोंपर भी पड़ा और द्वारसे हटकर ये शासन-देवता मन्दिरके भीतर, गर्भगृहके द्वारपर पहुँच गये। धीरे-धीरे और जैसे-जैसे जनतामें ऐहिक मनोकामनाको प्रमुखता मिलती गयी और देवी-देवताओंसे अपनी मनोकामनापूर्तिकी भावना प्रबल होती गयी, ये देवता तीर्थंकर प्रतिमाओंके अगल-बगलमें विराजमान किये जाने लगे। इन देवताओंके प्रति जैसे-जैसे निष्ठा बढ़ी, देवताओंका आकार भी उसी अनुपातसे बढ़ता गया। यहांतक कि देवियोंके शीर्षपर तीर्थंकर विराजमान करनेकी प्रथाने जन्म लिया। इतना ही नहीं, देवी-मूर्तियाँ उन तीर्थंकर प्रतिमाओंसे बड़ी बनने लगी और तीर्थकर प्रतिमाएँ उनकी अपेक्षा छोटी रह गयीं। देव-देवियोंकी स्वतन्त्र मूर्तियोंका प्रचलन भी बढ़ा।
देवता-विषयक मान्यताका यह विकास किस काल-क्रमसे हुआ, यह निश्चित रूपसे कहना तो कठिन है। किन्तु ईसा पूर्वको अथवा ईसवी सन्के प्रारम्भिक कालकी तीर्थंकर प्रतिमाओंके पार्श्वमें इन शासन-देवताओंकी मूर्तियाँ उपलब्ध नहीं होतीं। गुप्तकाल तक पहुँचते-पहुँचते शासन
शंख