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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
है, उन स्थानोंकी जैन स्थापत्य शैली और कला अवश्य दर्शनीय है। तोरण, आयागपट्ट, चैत्यवृक्ष, स्तूप, मानस्तम्भ, धर्मचक्र तथा अर्धोन्मीलित नेत्र, चुंघराले कुन्तल और श्रीवत्स लांछनयुक्त पद्मासन या खड्गासन प्रतिमाओंमें जैनत्व और जैनकलाकी ऐसी छाप अंकित होती है, जो अन्य धर्मोकी कलासे जैन कलाको पृथक् कर देती है। वस्तुतः ये सब वस्तुएँ तीर्थंकरके समवसरणकी ही भाग होती हैं और इसे समझे बिना जैन कलाको समझनेमें भूल होना सम्भव है।
एक भ्रान्त धारणा-जैन कलाको समझनेके लिए उन विशेषताओंको समझना आवश्यक है, जो जैन कलाके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। तीर्थकर मूर्तियाँ पद्मासन और खड्गासन दो ही आसनोंमें ध्यानावस्थामें मिलती हैं। सभी तीर्थंकरोंके परिचायक चिह्न होते हैं, जैसे वृषभदेवका बैल, पार्श्वनाथका सर्प, महावीरका सिंह। कुछ मतियाँ चिह्नरहित भी होती हैं। ऐसी मूर्तियोंके सम्बन्धमें जैन जनतामें ही बड़ा भ्रम है। चिह्न और लेखसे रहित मूर्तिको चतुर्थ काल ( ईसवी सन्से छह शताब्दी या उसके पूर्व ) की मान लिया जाता है। कुछ विद्वान् ऐसी मूर्तिको अवलोकितेश्वर या समाधिलीन शिवजीकी मूर्ति मान लेते हैं किन्तु ध्यानावस्थित जैन मूर्तिके निर्माणकी विधि जिन प्रतिष्ठापाठोंमें दी गयी है, उनमें इस सम्बन्धमें स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं। आचार्य जयसेन कृत प्रतिष्ठापाठमें बताया है
सल्लक्षणं भावविवृद्धिहेतुकं संपूर्णशुद्धावयवं दिगम्बरम् । सत्प्रातिहार्यनिजचिह्नभासुरं संस्कारयेद् बिम्बमथार्हतः शुभम् ॥
अर्थात् अर्हन्तकी मूर्ति शुभ लक्षणोंवाली, शान्तभावको बढ़ानेवाली, सम्पूर्ण सानुपातिक अंगोपांगोंसे युक्त दिगम्बर स्वरूप, अष्टप्रातिहार्य और अपने चिह्नसे सुशोभित बनानी चाहिए। आगे सिद्ध परमात्माकी मूर्तिका स्वरूप बताया है
सिद्धेश्वराणां प्रतिमापि योज्या तत्प्रातिहार्यादिविना तथैव ।
आचार्यसत्पाठकसाधुसिद्धक्षेत्रादिकानामपि भाववृद्धयै ॥१८१।। अर्थात् सिद्ध परमेष्ठीका बिम्ब प्रातिहार्य और चिह्न आदिसे रहित होना चाहिए और आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी तथा सिद्धक्षेत्र आदिकी प्रतिमा भाव-विशुद्धिके लिए बनाना उचित है। __अर्हन्त प्रतिमाके वक्षपर श्रीवत्स (श्रीवृक्ष) का चिह्न रहता है, किन्तु सिद्ध-प्रतिमाके वक्षपर यह चिह्न भी नहीं होता। इसीलिए जयसेनाचार्यने अर्हन्त-प्रतिमाकी निर्माण-विधिमें कहा है'उरोवितस्तिद्वयविस्तृतं स्याच्छीवत्ससंभासि सुचूचुकं च।' अर्थात् वक्षस्थल दो वितस्ति हो और श्रीवत्स चिह्नसे भूषित हो और उसकी चूचक सुन्दर हो। इसी प्रकार इसी प्रकरणमें अन्यत्र कहा है-'श्रीवृक्षभूषिहृदयं ।'
इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीवत्स, अष्टप्रातिहार्य और लांछन (चिह्न ) सहित अर्हन्त परमेष्ठीकी प्रतिमा होती है और जिस प्रतिमापर ये चिह्न नहीं होते, वह सिद्ध परमेष्ठीकी प्रतिमा होती है।
कुछ प्राचीन प्रतिमाओंपर श्रीवत्स नहीं मिलता। प्रारम्भमें श्रीवत्स छोटा होता था। किन्तु धीरे-धीरे इसका विकास हुआ । गुप्त कालमें यह कुछ बड़ा बनने लगा और प्रतिहार युगमें यह और अधिक विस्तृत हो गया।
अष्ट प्रातिहार्य--अशोक वृक्ष, पुष्पवर्षा, दुन्दुभि, आसन, दिव्यध्वनि, त्रिछत्र, दो चमर और प्रभामण्डल ये आठ प्रातिहार्य तीर्थंकरके होते हैं। प्राचीन कालमें तीर्थंकर प्रतिमामें पाषाणके ही छत्र चमरादि होते थे। दक्षिणमें जो प्राचीन जैन मूर्तियाँ मिलती हैं, वे सब छत्र चमरादि प्रातिहार्य