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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
सम्राट् सम्प्रतिने ऐसे स्थानोंपर जैनधर्मकी अहिंसा आदि लोक-कल्याणकारी धर्मशिक्षाएँ स्तम्भों या स्तुपोंपर खदवाकर लगवायी थीं जो तीर्थंकरोंके कल्याणक स्थान. अपने परिवारजनोंके मृत्युस्थान अथवा अपने जन्मस्थान थे। कौशाम्बी, प्रयाग, कालसी, सारनाथ आदिके स्तूप, सिंह स्तम्भ सम्राट् सम्प्रति द्वारा निर्मित हैं। सासारामके शिलालेखमें तो वीर नि० सं० २५६ दिया हुआ है।
दूसरी शताब्दीका एक आयागपट्ट मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त हुआ था, जिसमें सूचित स्तूपको प्राचीन अनुश्रुतिके समान पुरातत्त्ववेत्ता भी देवनिर्मित स्वीकार करते हैं। देवगढ़, मथुरामें और भी कई आयागपट्ट मिलते हैं। कौशाम्बी में भी कई आयागपट्ट प्राप्त हुए हैं।
एक वक्षके नीचे सुखासनसे बैठे हए स्त्री-पुरुष होते हैं। उनकी गोदमें कभी-कभी बालक भी होता है । वृक्षके शीर्षपर अर्हन्त प्रतिमा होती है। ऐसे चैत्यवृक्ष कई स्थानोंपर प्राप्त हुए हैं।
धर्मचक्र मूर्ति के सिंहासन पीठपर लांछनके दोनों ओर बने होते हैं। कभी दो सिंहोंके बीचमें बना होता है । कहीं-कहीं सर्वाह यक्ष अपने मस्तकपर धर्मचक्र उठाये हुए मिलता है। कौशाम्बी, देवगढ़में एक पाषाणमें बने हुए धर्मचक्र भी मिले हैं। तीर्थंकरोंके समवशरणमें द्वारपर धर्मचक्र रहता है। जब वे विहार करते हैं, उस समय धर्मचक्र उनके आगे-आगे चलता है। उनके प्रथम उपदेशको धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। इन कारणोंसे धर्मचक्र जैनधर्मका महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। इसमें ८, १६, २४, ३२ और एक हजारतक आरे रहते हैं।
४. विविध अलंकरण और वेदिका स्तम्भ-जैन स्तूपोंके चारों ओर पत्थरोंका घेरा बनाया जाता था। यह वेदिका कहलाता था। इसमें सीधे और आड़े पत्थर लगाये जाते थे। सीधे पत्थरोंपर लोक जीवन और प्राचीन आख्यानोंसे सम्बन्ध रखनेवाले विविध दृश्य अंकित किये जाते थे। आड़े पत्थरोंपर पशु-पक्षियों और प्रकृति-सौन्दर्यके दृश्य उत्कीर्ण किये जाते थे। इस प्रकारके स्तम्भ मथुरा और देवगढ़में प्रचुर मात्रामें उपलब्ध हुए हैं। देवगढ़के स्तम्भ गुप्तकाल या उसके पश्चाद्वर्ती कालके हैं, जबकि मथुराके स्तम्भ कुषाणकालके हैं। मथुराके वेदिका-स्तम्भोंमें स्त्रियों के विविध मोहकरूपोंके दृश्य बहुतायतसे मिलते हैं। विविध शैलीके केशपाश, नाना जातिके अलंकार-कर्णकुण्डल, मुक्तकहार, केयूर, कटक, मेखला, नूपुर आदि और आकर्षक मुद्राएँ ये सब स्त्री-रूपोंको विशेषताएँ हैं।
इन सबके अतिरिक्त यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, सुपर्ण, नाग आदिकी मूर्तियाँ भी इन स्थानोंपर प्राप्त हुई हैं। देवगढ़ और मथुरामें धनके अधिष्ठाता कुबेर और उनकी स्त्री हारीतीको कुछ मूर्तियाँ मिलती हैं।
__ मथुरा, कौशाम्बीमें लोक-जीवनको प्रगट करनेवाली अनेक मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं। ये मूर्तियाँ शुंगकालसे मध्यकाल तककी हैं । ये मूर्तियाँ मथुरा, प्रयाग और लखनऊके संग्रहालयोंमें सुरक्षित हैं।
___ वास्तुकला-वर्तमान कालमें जहाँपर जैन पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध होती है, वहाँ प्राचीन कालमें अनेक भव्य मन्दिर, स्तूप, मानस्तम्भ, वेदिका-स्तम्भ आदि रहे होंगे किन्तु कुछ अपवादोंको छोड़कर गुप्तकाल अथवा कुषाण कालकी कोई समूची कृति नहीं मिलती। देवगढ़ और श्रावस्तीमें कुछ मन्दिर जीर्ण अवस्थामें अवश्य खड़े हैं। उनके अतिरिक्त अवशेषोंमें तोरण, द्वारस्तम्भ, गवाक्ष, आधार स्तम्भ आदि विपुल परिमाणमें मिलते हैं। इन सबको देखनेसे जैन वास्तुकला और स्थापत्य कलाकी समृद्ध दशाका कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। जिन स्थानोंपर हिन्दुओं और बौद्धोंका कोई मन्दिर या मूति नहीं है, केवल जैनोंका ही मन्दिर या मूति मिलती