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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ जनतामें कलह बढ़ने लगी थी, मारपीट भी होने लगी थी। तब इन्होंने हर एकके कल्पवृक्षोंपर चिह्न लगाकर कलह शान्त की।
७–सीमन्धरके पुत्र विमलवाहन हुए। इन्होंने हाथी, घोड़ा आदि जानवरोंको वशमें करके अंकुश, लगाम, पलान आदि द्वारा उनपर सवारी करना सिखाया ।
८-विमलवाहनके चक्षुष्मान् पुत्र हुए। पहले माता-पिता पुत्र होते ही मर जाते थे। किन्तु इनके समयमें पुत्र उत्पन्न होनेपर कुछ कालतक माता-पिता जीवित रहते थे। कुलकरने जनताको इसका कारण समझाकर निर्भय किया।
९-चक्षुष्मान्के पुत्र यशस्वान् हुए। इन्होंने प्रजाको पुत्रका नाम रखना सिखाया। .. १०-यशस्वान्के पुत्र अभिचन्द्र हुए। इनके उपदेशसे प्रजा अपने पुत्रोंको चन्द्रमाकी चाँदनीमें भी खिलाने लगी।
११-अभिचन्द्रके पुत्र चन्द्राभ हुए। अब इनके उपदेशसे प्रजा अपनी सन्तानको आशीर्वाद देने लगी और पुत्रके साथ माता-पिता कुछ समयतक खेलनेका आनन्द लेने लगे।
१२-चन्द्राभके पुत्र मरुदेव हुए। इनके प्रवचनसे माता-पिता अपने पुत्रोंकी तोतली बोली सुननेका आनन्द लेने लगे।
१३-मरुदेवके पुत्र प्रसेनजित हुए। इन्होंने पुत्र उत्पन्न होनेपर जरायु हटानेकी विधि सिखायी।
१४-प्रसेनजितके पुत्र नाभिराज हुए। ये अन्तिम कुलकर थे। इन्होंने बच्चोंके नाल काटनेकी विधि बतायी। इन्होंने मिट्टीके बरतन बनाना और स्वयं उगे हुए धान्योंका उपयोग करना सिखाया।
इस प्रकार ये चौदह कुलकर हए और ये सभी एक ही वंश-परम्पराके रत्न थे। ये गंगा और सिन्ध नदियों के बीच दक्षिण भरत क्षेत्रके निवासी थे। जनतापर इनका बहुत प्रभाव था। ये जनताका नियमन करते थे और आवश्यकता पड़नेपर दण्ड भी देते थे। किन्तु इनका दण्ड शारीरिक न होकर मनोवैज्ञानिक था। किसीसे अपराध होनेपर वे कहते 'हा' । यदि अपराध भारी हुआ या पुनः अपराध हुआ तो कहते थे 'मा'। यदि अपराधी फिर भी बाज न आया या अपराध अति भयानक हुआ-आजकी अपेक्षा नहीं, उस कालकी अपेक्षा-तो कहते ‘धिक्'। यह दण्ड अत्यन्त कठोर माना जाता था। और तब, पुनः अपराध करनेका साहस नहीं होता था।
वैदिक परम्परामें स्वायम्भुव मनु मन्वन्तर परम्पराके आद्य प्रवर्तक माने गये हैं। स्वायम्भुवके प्रियव्रत, प्रियव्रतके आग्नीध्र, आग्नीध्रके नाभि और नाभिके पुत्र ऋषभदेव बताये गये हैं।
युगके प्रारम्भमें कर्म-व्यवस्था-जब श्री नाभिरायकी पत्नी मरुदेवीके गर्भ में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आनेवाले थे, तब सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने कुबेरको त्रिलोकीनाथ भगवान्के उपयुक्त नगरीकी रचना करनेका आदेश दिया। तब देवोंने अयोध्याकी रचना की और इन्द्रने उस नगरीमें सर्वप्रथम जिन मन्दिरोंका निर्माण किया। भगवान् ऋषभदेवने युगके आदिमें यहींपर सबसे पहले असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मोंका ज्ञान संसारको दिया था। यहींपर उन्होंने अपनी ब्राह्मी और सुन्दरी पुत्रियोंके माध्यमसे लिपि और अंक विद्याका आविष्कार किया था। अपने भरत आदि सौ पुत्रोंको बहत्तर कलाओंका शिक्षण भी उन्होंने यहीं दिया था। सामाजिक व्यवस्थाके लिए क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णकी स्थापना उन्होंने यहीं की। राजनीतिक
१. श्रीमद्भागवत ११।२।१५, मनुस्मृति ११६१ ।