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________________ २३६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं थीं । अशोकने वृद्धावस्थामें तिष्यरक्षिता नामक एक युवतीसे विवाह किया था। एक बार एकान्त पाकर तिष्यरक्षिता कुणालकी आँखोंको देखकर उसपर मुग्ध हो गयी । विमाताके इस घृणित प्रस्तावको कुणालने अस्वीकृत कर दिया। इससे तिष्यरक्षिता उसकी शत्रु बन गयी । अवसर पाकर एक दिन उसने तक्षशिला के पौरजनोंको एक कपट- लेख भेजकर अशोकके नामसे यह आदेश भिजवाया कि कुमारको अन्धा कर दिया जाये । इस आदेशको पाकर पौरजन भयभीत हो गये । तब कुणालने इस आदेशको राजाका और पिताका आदेश मानकर उनकी आज्ञाको पालना अपना कर्तव्य समझा और खुशींसे आँखें निकलवा दीं। जब कुणाल अपनी स्त्री कांचनमाला के साथ पाटलिपुत्र आया और अशोकको इस भयानक षड्यन्त्रका पता चला तो उसने तिष्यरक्षिताको जिन्दा जलवा दिया तथा जो लोग इस षड्यन्त्रमें शामिल थे, उन्हें मरवा दिया या निर्वासित कर दिया । साथ ही, तक्षशिला में जिस स्थानपर कुणालने अपनी आँखें निकलवायी थीं, वहाँ स्तूप खड़ा करवा दिया । यह स्तूप चीनी यात्री ह्वान च्वांगके समय तक वहाँ मौजूद था। इस स्तूपके खण्डहर सिरका के डेढ़ मील पूर्वमें वरपल नामक गाँव में पड़े हुए 1 ये खण्डहर रावलपिण्डीसे उत्तर-पश्चिम में २६ मील पर हैं और कलाका सराय रेलवे स्टेशन से २ मील हैं । इस नगरकी भूमिपर अब हाहधेरी, सिरकाय, सिरमुख, कच्छाकोट गाँव बस गये हैं । ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में वैक्ट्रियासे निकाले जानेपर कुषाणोंने इसे अपनी राजधानी बनाया था । सिकन्दरने इसको ईसा पूर्व ३२६ में जीता था । उसके चार वर्ष बाद मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्तने इसे अपने राज्यमें मिला लिया था । ईसा पूर्व १९० में ड्रेमिट्रियसने इसे जीत लिया और यह ग्रीक राजाओंकी भारतीय राजधानी बन गया। उसके बाद यह नगर शक, पल्लव और कुषाण राजाओंके आधिपत्यमें रहा । विख्यात विश्वविद्यालय यहाँ ईसाकी प्रथम शताब्दी तक पश्चिम के बलभी, पूर्वके नालन्दा, दक्षिण में कांचीपुरम् और मध्य भारतके धन कटकके समान उत्तरापथका प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था । पाणिनि जैसा वैयाकरण, विख्यात वैद्य जोवक यहीं पढ़े थे । सम्भवतः चाणक्यने भी यहीं शिक्षा प्राप्त की थी। इस विश्वविद्यालय में शस्त्र और शास्त्र दोनों प्रकारकी शिक्षाकी व्यवस्था थी । दूर-दूर से लोग यहाँ पढ़ने आते थे । सिरकायसे चार मीलपर विशाल भवनोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं । यहीं पर यह विश्वविद्यालय था । इसकी ख्याति सुदूर देशों तक थी । जैनधर्मका केन्द्र ईसापूर्व ३२६ में सिकन्दर अटकके निकट सिन्ध नदीको पार करके तक्षशिला में आकर ठहरा | उसने दिगम्बर जैन मुनियोंके उच्च चरित्र, उन्नत्त ज्ञान और कठोर साधनाके सम्बन्धमें अनेक लोगों से प्रशंसा सुनी थी। इससे उसके मनमें दिगम्बर जैन मुनियोंके दर्शन करनेकी प्रबल आकांक्षा थी । जब उसे यह ज्ञात हुआ कि नगरके बाहर अनेक नग्न जैनमुनि एकान्तमें तपस्या कर रहे हैं, तो उसने अपने एक अमात्य ओनेसीक्रेटसको आदेश दिया- तुम जाओ और एक जिम्नोसा फिस्ट (दिगम्बर जैनमुनि) को आदर सहित लिवा लाओ । ओनेसीक्रेटस वहाँ गया, जहाँ जंगलमें जैनमुनि तपस्या कर रहे थे । वह जैन संघ के आचार्य के पास पहुँचा और कहा - आचार्य ! आपको बधाई है। परमेश्वरका पुत्र सम्राट् सिकन्दर, जो सब मनुष्योंका राजा है, आपको अपने पास बुलाता है। यदि आप उसका निमन्त्रण स्वीकार
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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