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परिशिष्ट-२
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भगवान् बाहुबली केवलज्ञानके बाद पृथ्वीपर विहार करते रहे । पश्चात् भगवान् ऋषभदेवके सभासद् हो गये, और कैलास पर्वतपर जाकर मुक्त हुए ।
पोदनपुरकी अवस्थिति
पोदनपु क्षेत्र कहाँ था, वर्तमान में उसकी क्या स्थिति है, अथवा क्या नाम है, इस बातको जनता प्राय: भूल चुकी है । कथाकोषों और पुराणोंमें पोदनपुरमें घटित कई घटनाओं का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनसे पोदनपुरकी भौगोलिक स्थितपर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता फिर भी दिगम्बर पुराणों, कथाकोषों और चरितग्रन्थों आदिमें इधर-उधर बिखरे हुए पुष्पोंको यदि एकत्र करके उन्हें एक सूत्रमें पिरोया जाये तो उनसे सुन्दर माला बनायी जा सकती है ।
पोदनपुरके लिए प्राचीन ग्रन्थोंमें कई नामोंका प्रयोग मिलता है । जैसे पोदन, पोतन, पोदनपुर । प्राकृत और अपभ्रंशमें इसे ही पोयणपुर कहा गया है ।
समाजमें पोदनपुरके सम्बन्धमें एक धारणा व्याप्त है कि यह दक्षिणमें कहीं था । भगवान् ऋषभदेवने पुत्रोंको राज्य देते समय भरतको अपने स्थानपर अयोध्याका राजा बनाया और अन्य ९९ पुत्रों को विभिन्न देशों या नगरोंके राज्य दिये । बाहुबलीने अपनी राजधानी पोदनपुर में बनायी । हरिषेण कथाकोष (कथा २३ ) में पोदनपुर के सम्बन्ध में साधारण-सा संकेत इस प्रकार दिया गया है ।
अथोत्तरापथे देशे पुरे पोदननामनि ।
राजा सिंहरथो नाम सिंहसेनास्य सुन्दरी ||३|| इससे स्पष्ट होता है कि पोदनपुर नामक नगर उत्तरापथ देशमें था ।
इसी प्रकार कथा २५ में 'थोत्तरापथे देशे पोदनाख्ये पुरेऽभवत्' यह पाठ है । इससे तो लगता है कि पोदनपुर दक्षिणापथमें नहीं, उत्तरापथमें अवस्थित था । किन्तु अन्य पुष्ट प्रमाण इसके विरुद्ध हैं और उनसे पोदनपुर दक्षिणमें था, ऐसा निश्चित होता है । जनताकी परम्परागत धारणाका अवश्य कोई सबल आधार रहा है ।
दक्षिणापथ में होने की इस धारणाको वीर मार्तण्ड चामुण्डरायके चरितसे अधिक बल मिला है | श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं. २५० (८०) ता. १६३४ में श्रवणबेलगोलकी बाहुबली प्रतिमाके निर्माण और प्रतिष्ठा सम्बन्धी एक कहानी दी गयी है, जो बहुप्रचलित हो चुकी है ।
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'भरत चक्रवर्तीने पोदनपुर में ५२५ धनुष ऊँची स्वर्णमय बाहुबली-प्रतिमा बनवायी थी । कहते हैं, इस मूर्तिको कुक्कुट - सर्प चारों ओर से घेरे रहते हैं, इसलिए आदमी पास नहीं जा सकता । एक जैनाचार्य जिनसेन थे । वे दक्षिण मथुरा गये । उन्होंने पोदनपुरकी इस मूर्तिका वर्णन चामुण्डरायकी माता काललदेवीसे किया । उसने यह नियम ले लिया कि जबतक मुझे इस मूर्तिका दर्शन नहीं होगा, मैं दूध नहीं पीऊँगी । इस नियमका समाचार गंगवंशी महाराज राचमल्लके मन्त्री चामुण्डरायको उनकी स्त्री अजितादेवीने बता दिया । तब चामुण्डरायने उस मूर्ति की तलाशके लिए चारों ओर अपने सैनिक भेजे और स्वयं अपनी माताको लेकर चल दिये । मार्ग में चन्द्रगिरि ( श्रवणबेलगोल ) में ठहरे। रात्रिको पद्मावतीदेवीने चामुण्डरायको स्वप्न दिया कि सामने दोट्टवेट ( विन्ध्यगिरि अथवा इन्द्रगिरि ) पर्वतपर श्रीगोम्मट स्वामीकी मूर्ति जंगलके भीतर छिपी हुई है ।
१. आदि पुराण ३६-२०२ ।
२. हरिवंश पुराण १०१।१०२ ।