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परिशिष्ट-१
२२१ उस समय लोगोंको मन्दिरकी तामीर बन्द करने और हर एकसे एक-एक आना झोलीमें लेनेका रहस्य ज्ञात हुआ। सब लोग राजा साहबकी निरीहवृत्ति और निरभिमानता देखकर दंम रह गये।
___आपकी निरीहता और निरभिमानताका सबसे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि आपने नया मन्दिर धर्मपुराके अतिरिक्त पटपड़गंज, हस्तिनापुर, करनाल, सोनपत, हिसार, पानीपत; सांगानेर आदि अनेक स्थानोंपर मन्दिरोंका निर्माण किया। निर्माण पूरा होते ही सभी जगह आपने उसे पंचायतके सुपुर्द कर दिया। साथ ही, मन्दिर में कहीं कोई ऐसा चिह्न तक न छोड़ा जिससे मन्दिरसे उनका सम्बन्ध प्रकट हो सके। यशोलिप्सा और अभिमानसे अपने आपको बचानेवाले व्यक्ति संसारमें विरल होते हैं।
वे दीन-असमर्थोंकी गुप्त सहायता किया करते थे। जहाँ रुपयेकी आवश्यकता होती, वह किसी बहानेसे रुपये भेज देते थे। कभी गिन्दौड़ेमें रखकर, कभी बड़े लड्डूमें रखकर । इस प्रकारकी सहायताओंके बारेमें किसीको कानों कान खबर तक न हो पाती थी।
संवत् १८६७ में आपके मन में रथयात्रा निकालने की भावना उत्पन्न हुई। किन्तु वे यह भी जानते थे कि रथयात्राके लिए शाही हुक्म मिलना कठिन है, कठिन ही नहीं, असम्भव है। यह सोचकर वे उपयुक्त अवसरकी प्रतीक्षा करते रहे।
एक दिन वे चाँदनी चौकमें-से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि सुनहरी मसजिदकी सुनहरी पालिश धुंधली पड़ गयी है। उन्होंने उसी समय रंग-रोगनके कारीगर बुलाये और मसजिदपर सुनहरी पालिश करनेका हक्म दे दिया। कुछ दिन पश्चात् बादशाह उधरसे हाथीपर गुजरे । उनकी निगाह सुनहरी मसजिदकी तरफ गयी। उन्होंने पूछा-'यह पालिश किसने करायी ?' दीवान बोला-'हुजूर ! राजा हरसुखरायके हुक्मसे हुई है।' बादशाह सुनकर चुप हो गया किन्तु मनमें वह राजा साहबसे बहुत खुश हुआ। दूसरे दिन दरबार में अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए बोला-राजा साहब ! माबदौलत तुमसे बहुत खुश हैं। तुम्हें जो माँगना हो, वह माँग लो।।
राजा साहब दरबारी शिष्टाचारसे बोले-'हजूरकी ऐन इनायत है। हजूर अगर कुछ ख्याल न करें तो भगवान्की सवारी निकालने की मेरी ख्वाहिश है। आलमपनाह हुकुम अता फरमाने की नवाजिश फरमायें।' राजा साहबने वरदान तो माँगा किन्तु डरते-डरते । उन्हें विश्वास नहीं था कि वरदान उन्हें मिल सकेगा। मसलमानी सल्तनतमें रथयात्रापर न जाने कबसे पाबन्दी चली आ रही थी। किन्तु उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा, जब बादशाहने रथयात्राकी स्वीकृति देकर हुकमनामेपर अपनी मुहर लगा दी। राजा साहब कृतज्ञतासे अभिभूत हो गये । उन्होंने बारबार धन्यवाद देकर अपनी कृतज्ञता प्रकट की। इसके बाद जो रथयात्रा निकली, उसमें जैनोंके हर्षका पार नहीं था। ..
कुछ वर्षों तक आप अँगरेजी सल्तनतके भी खजांची रहे । संवत् १८७९ में कोठीकी साझेदारी समाप्त हो गयी। उसके एक वर्ष बाद संवत् १८८० में आपका स्वर्गवास हो गया।
आपके पुत्र सुगनचन्द हए। आपने भी राजा साहबकी परम्पराको निभाया तथा धर्म एवं समाजके प्रत्येक कार्यमें रुचिपूर्वक भाग लिया। सेठका कुँचा बड़ा मन्दिर
इस मन्दिरका निर्माण सेठ इन्द्रराजजीने २०० वर्ष पूर्व कराया था। ये यहीं सेठके कुँचामें रहते थे। मुख्य वेदी और उसमें विराजमान मूलनायक भगवान् आदिनाथकी प्रतिमा मन्दिरके