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________________ २२० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ को नहीं है । अब मेरी लाज आप लोगोंके हाथ है ।' यह असम्भव-जैसी बात सुनते ही पंच लोग बोले-'हुजूर ! आप हमें शर्मिन्दा कर रहे हैं। हमारे पास जो कुछ है, सब आपका ही है। आप हुक्म फरमा, लाख-दो लाख अभी हाजिर हो जायेगा।' ले-'यह तो आप सब सरदारोंकी मेरे ऊपर मेहरबानी और प्रेम है । लेकिन मैं तो सारी बिरादरीसे लूँगा। अपने भाइयोंके सामने झोली फैलानेमें शर्म किस बात की। पंचोंने सम्मिलित भी और अलग-अलग भी बहत कहा, इसरार किया-'यह तो हम लोगोंके मरनेकी बात होगी कि हम लोगोंके रहते हए आप भरी पंचायतमें झोली पसारें। आप हुक्म तो दीजिए जो कहेंगे, हम लोग ही आपसमें इकट्ठा कर लेंगे।' किन्तु राजा साहब किसी भी तरह नहीं माने और उनकी इच्छानुसार एक दिन सारी पंचायत बुलायी गयी। राजा साहबने अपनी बात दुहरा दी, जो पंचोंके समक्ष कही थी। अन्तमें बोले-'सब भाई यहाँ मौजूद हैं। हर भाई मेरी झोलीमें एक आना डालता चला जाये, अधिक नहीं लूंगा।' यों कहकर राजा साहब वास्तवमें ही झोली पसारकर खड़े हो गये। जो आता गया, इकन्नी डालता गया। किसीने रुपया या गिन्नी डालनी चाही तो झोली बन्द हो गयी। लाचार सबने इकन्नी ही डाली। इस बातको लेकर बिरादरीमें नाना भाँति की चर्चाएं हुईं। दूसरे दिनसे मन्दिरमें तामीरका काम पुनः चालू हो गया। काम था ही कितना, ५-७ दिनमें समाप्त हो गया। फिर राजा साहबने पंचायत बुलाकर प्रतिष्ठा और कलशारोहणका मुहूर्त निश्चित किया। वैशाख शुक्ला ३ सं. १८६४ को प्रतिष्ठा हई। तभी एक भयंकर दुर्घटना हो गयी। लाल किलेके सामने परेडके मैदानमें विशाल पण्डाल बनाया गया था। पण्डाल खूब सजाया गया था। यहींपर सारे धार्मिक विधि-विधान हो रहे थे। तभी कुछ विद्वेषी लोगोंने पण्डाल में आग लगा दी और सोने-चाँदीकी चीजें-छत्र, चमर, बरतन आदिको लूट लिया। इस काण्डसे स्त्री-पुरुषोंमें भगदड़ मच गयी। राजा साहब बड़े उदास मनसे खड़े-खड़े यह काण्ड देखते रहे। दूसरे दिन राजा साहब बादशाहके दरबारमें पहुंचे और सारी घटना कह सुनायी । बादशाहने कोतवाल द्वारा गुण्डोंको बुलाया और कड़ी फटकार दी। गुण्डोंसे सब सामान वापस दिलाया। तब प्रतिष्ठाका कार्य सम्पन्न हुआ। जब शिखरपर कलश और ध्वजाके आरोहणका समय आया तब अन्य व्यक्तियोंके समान राजा साहब भी बैठे हुए थे । मुहूर्त-काल बीत रहा था। प्रतिष्ठाचार्यने प्रतिष्ठाकारक यजमानको आनेका आदेश दिया। फिर भी राजा साहब बैठे रहे। तब पंचोंने राजा साहबसे अनुरोध किया'हुजूर ! शुभ काममें देर कैसी, शुभ मुहूर्त में ही कलशारोहण और ध्वजारोहण करना है आपको।' तब राजा हरसुखराय बोले-'शुभ काम शुभ मुहूर्तमें तो होना ही चाहिए। किन्तु आप लोग यह सब मुझसे क्यों कह रहे हैं ?' पंचोंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-'वाह साहब ! आपसे नहीं तो किससे कहें। आप मालिक हैं। मन्दिर आपका है, प्रतिष्ठा आप करा रहे हैं।' राजा साहबने हैरत प्रकट करते हुए बड़ी विनम्रतासे उत्तर दिया-'आप लोग क्या कह रहे हैं ! न मन्दिर मेरा है, न मैं प्रतिष्ठाकारक ही हूँ। आमन्त्रण पत्रिकामें देखिए, अग्रवाल दिगम्बर जैन पंचायतका नाम है। मन्दिरमें सारी बिरादरीका पैसा लगा है। अब कलश और ध्वजारोहणमें या तो सारी बिरादरी हाथ लगायेगी या फिर कोई नहीं लगायेगा।'
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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