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परिशिष्ट - १
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जीतकर एक माह तक दिल्लीकी लूटमार करता रहा । और अपार धन-दौलत लेकर वह ईरान वापस चला गया।
नादिरशाह और अहमदशाह अब्दालीकी लूटोंके बीच एक बार और भी दिल्लीकी लूट हुई । वह लूट भरतपुरके जाट नरेश सूरजमलने सं. १८९० में की ।
इस प्रकार लगातार तीन बार लूट होनेके कारण कोष बिलकुल खाली हो गया । मुगल सल्तनत कमजोर पड़ चुकी थी। राजा लोग कर अदा करनेमें आनाकानी करते थे। ऐसे समयमें राजा हरसुखरायने कोषका काम सम्हाला और बड़ी योग्यतासे निभाया। उनकी योग्यता और कुशलतासे प्रसन्न होकर कई रियासतोंने उन्हें अपने यहाँका खजांची नियुक्त किया था । भरतपुरनरेशने उन्हें अपने दरबारका कौंसिलर नियुक्त किया था ।
राज्य में भारी गड़बड़ी मची हुई थी। राजा साहबने अपने परिवारको सुरक्षाकी दृष्टिसे हिसार भेज दिया । एक दिन कुछ डाकू उनके घरपर जा धमके। आपने उनसे पूछा - 'तुम्हें क्या चाहिए, धन ?' और उन्होंने अपनी तिजोरी खोल दी और कहा - 'तुम्हें जितना धन चाहिए, ले लो ।' डाकू जैसे ही तिजोरी में से धन निकालनेको तैयार हुए, तभी सरदार कड़ककर बोला'खबरदार ! किसीने मालको जो हाथ लगाया । यह आदमी नेक और शरीफ है। इसका माल हजम नहीं होगा ।' सब डाकू माल छोड़कर वहाँसे चले गये ।
वि. संवत् १८५८ में आपके मनमें मन्दिर निर्माणकी भावना हुई। आपने बादशाह से - धर्मपुरा में उपयुक्त स्थान लेकर मन्दिर और उसके ऊपर शिखर बनानेकी आज्ञा ले ली। सात वर्ष में आठ लाख की लागत से भव्य कलापूर्ण मन्दिर बनकर तैयार हो गया । शिखर भी लगभग बन चुका था, केवल १-२ दिनका कार्य बाकी था। तभी उन्होंने मदद बन्द करवा दी । लोगोंने देखा - मन्दिरकी मदद क्यों बन्द हो गयी ! २-४ दिन हो गये, मदद चालू नहीं हुई । जनतामें इस "बात को लेकर कुछ कानाफूसी शुरू हो गयी । जब एक सप्ताह तक मदद चालू नहीं हुई तो लोगोंमें नाना भाँतिकी चर्चाएँ होने लगीं। कुछ असूया - रसिकोंने तो राजा साहबकी निन्दा तक करना आरम्भ कर दिया । पंचायतके प्रमुख लोगोंने इस मसलेपर परस्पर परामर्श किया और निश्चय किया कि राजा साहब से मिलकर पता लगाया जाये कि मन्दिरकी मदद क्यों रुक गयी है ।
पंच लोग मिलकर राजा साहबके घर पहुँचे । राजा साहबने सबका हार्दिक स्वागत किया और आदरपूर्वक सबको आसन दिया । उन्होंने पान, सुपाड़ी, इत्र आदि द्वारा सबका यथोचित सम्मान किया । यह सब शिष्टाचार समाप्त होनेपर राजा साहब हाथ जोड़कर बोले- 'मेरा अहो - भाग्य है कि बिरादरीके सरदार लोग यहाँ पधारे और मेरी इज्जत बढ़ायी । कहिए, सरदार साहबानोंने कैसे कष्ट किया ?"
एक पंच बोले - 'हुजूर ! देख रहे हैं, कई दिनोंसे मन्दिरमें तामीरका काम बन्द पड़ा है । एकाएक क्या बात हो गयी, क्या हुजूर इसपर रोशनी डालनेकी इनायत बख्शेंगे ।'
सुनकर राजा साहब एकाएक गम्भीर हो गये । बोले - 'मैं शर्मिन्दा हूँ कि आप लोगोंको इस बात के लिए इतनी तकलीफ उठानी पड़ी। मैं कई दिनसे सोच रहा था कि बिरादरीके लोगों के पास जाऊँ और सारी हकीकत कह जाऊँ । मेरी बदकिस्मती है कि मैं कामों में इतना मशगूल रहा कि जा नहीं सका। लेकिन जब सभी सरदार लोग खुद ही पधारे हैं तो मुझे कहने में झिझक क्या । फिर आप लोग तो मेरे भाई-बन्धु हैं । आप लोगोंसे ही नहीं कहूँगा तो मैं निश्चिन्त कैसे हो पाऊँगा । बात यह है कि मेरे पास जो कुछ था वह मैं लगा चुका। अब मेरे पास लगाने