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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
बड़े पुत्र थे। लालाजी हिसारके माने हए रईसोंमें थे। दिल्लीके मुगल बादशाह शाहआलम (सं. १८१६-१८६३) ने आपको दिल्ली बुलाया और उनसे दिल्लीमें ही रहनेका अनुरोध किया। लालाजीने बादशाहके अनुरोधको स्वीकार करके दिल्लीमें ही अपने परिवारको बुला लिया। बादशाहने उन्हें रहने के लिए एक मकान दिया। लालाजी वहीं रहने लगे । आपके पाँच पुत्र थेहरसुखराय, मोहनलाल, संगमलाल, सेवाराम और तनसुखराय। पानीपतके एक जैन रईसको, जिनका नाम लाला सन्तलाल था, बादशाहने दिल्ली बुलाया और उन्हें भी रहनेके लिए एक मकान दे दिया। संवत् १८४८ में लाला हरसुखरायने लाला सन्तलालके साझेमें साहूकारेकी कोठी खोली । संवत् १८५२ में लाला हरसुखरायको शाही खजांची बना दिया गया और बादशाहने उन्हें राजाका खिताब देकर सम्मानित किया। बादमें सल्तनतकी ओरसे उन्हें तीन जागीरें और सनदें भी मिली थीं। वे बादशाहके अत्यन्त विश्वासपात्र व्यक्तियोंमें-से थे। कोषको सुरक्षा, वृद्धि और आवश्यकता आ पड़नेपर बादशाह और सल्तनतके लिए धनकी व्यवस्था करनेका दायित्व राजा साहबके ऊपर था। जिसे वे बड़ी योग्यता और निष्ठाके साथ पूरा कर रहे थे। बादशाह उनसे अत्यन्त प्रसन्न थे और खजानेका सारा भार उनपर सौंपकर वह निश्चिन्त हो गये थे और उन्हें अपने अत्यन्त विश्वसनीय नवरत्नों में स्थान दिया था।
यह वह समय था, जब मुगल सल्तनत अपनी अन्तिम साँसें ले रही थी। औरंगजेबकी अनुदार और असहिष्णु नीतिके कारण चारों ओर विद्रोह सुलग रहा था। बादशाहकी मृत्यु होते ही वह विद्रोह फूट पड़ा। भरतपुरके जाट, पंजाबके सिख, राजस्थानके राजपूत और दक्षिणमें मरहठे उठ खड़े हुए और उन्होंने स्वतन्त्र राज्य खड़े कर लिये । औरंगजेबकी मृत्युका समाचार पाते ही उसके दोनों पूत्र-सुअज्जम और आजम अपनी-अपनी सेनाएँ लेकर दिल्लीकी गद्दीपर कब्जा करने चल पड़े। दोनोंका आमना-सामना जाजऊ (आगरा-धौलपूरके बीच में एक गाँव) के मैदानोंमें हुआ। उसमें आजम मारा गया और मुअज्जम बहादुरशाहके नामसे मुगल सम्राट् बन गया। उसका शासनकाल १७६४ से १७६९ तक था। किन्तु सल्तनतकी स्थिति दिनोंदिन खराब होती गयी। विद्रोह बढ़ते गये, राज्य-कोष खाली होता गया। इसके बाद कई बादशाह हुए। फिर मुहम्मदशाह (सं. १७७६-१८०५ ) गद्दीपर बैठा। वह स्वयं तो अयोग्य था किन्तु आमेर नरेश सवाई जयसिंहसे व्यवस्था करनेके लिए उसने सहयोग मांगा। सवाई राजाने सहयोग देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। उसने आकर जाटोंका विद्रोह शान्त कर दिया। सं. १७८४ में सवाई राजा बादशाहकी नौकरी ( आगराकी सूबेदारी ) छोड़कर आमेर चला गया।
कुछ वर्षों बाद ईरानका लुटेरा शासक नादिरशाह मुगल हुकूमतको कमजोर जानकर करनाल तक आ पहुँचा। वहाँ मुहम्मदशाह की सेनाओंसे उसका युद्ध हुआ। उसमें मुहम्मदशाह २४ फरवरी सन् १७३९ को पराजित हुआ। नादिरशाह दिल्लीपर चढ़ आया और उसने अपने सैनिकोंको दिल्लीको लूटने और कत्लेआमका हुक्म दे दिया। फलत: ३० करोड़ रुपये, बेशुमार हीरे-जवाहरात, बेगमें और उनके वस्त्राभूषण, तख्तताऊस और कोहनूर हीरा उसके हाथ लगे। _____ सं. १८०५में मुहम्मदकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद अहमदशाह ( सं. १८०५-११ ), आलमगीर द्वितीय ( सं. १८११-१८१६ ), शाहआलम ( सं. १८१६-१८६३ ) गद्दी पर बैठे। चारों ओर विद्रोहके कारण अब मुगल सल्तनत सिकुड़-सिमटकर बहुत थोड़े प्रदेशपर रह गयी। संवत् १८१४ में नादिरशाहके उत्तराधिकारी अहमदशाह अब्दालीने दिल्लीपर आक्रमण किया और उसे