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________________ परिशिष्ट-१ २१७ बनी हुई है। मूलनायक भगवान् आदिनाथ ( सं. १६६४ ) की प्रतिमा संगमरमरकी १० फुट ऊँची वेदीमें विराजमान है। जिस कमलासनपर यह प्रतिमा विराजमान है, उसकी कीमत दस हजार रुपये तथा वेदीको लागत सवा लाख रुपये बतायी जाती है। (यह लागत उस समयकी है, जब राज चार आने और मजदूर दो आना रोज लेते थे।) कमलके नीचे संगमरमरके पत्थर में चारों दिशाओंकी ओर मुख किये हुए चार सिंहोंके जोड़े बने हुए हैं। इनके मूंछोंके बालोंकी बारीक कारीगरी दर्शनीय है। वेदीमें बहुमूल्य पाषाणको पच्चीकारी और बेलबूटोंका अनुपम अलंकरण . इतना कलापूर्ण और बारीक किया गया है, जिसे देखनेके लिए देश और विदेशके अनेक कलामर्मज्ञ आते रहते हैं और उसे देखकर आश्चर्य करते हैं। वेदीके चारों ओर दीवारोंपर जैन कथानकोंको लेकर कलापूर्ण स्वर्णखचित चित्रांकन किया गया है। . मूलनायक प्रतिमा अब मन्दिरमें मौजूद नहीं है। कहा जाता है कि वह खण्डित हो गयी थी और बम्बईके समुद्र में प्रवाहित कर दी गयी थी। __ पहले इस मन्दिर में एक वेदी थी। बादमें एक वेदी उन प्रतिमाओंके लिए बनायी गयी, जिनकी रक्षा गदरके जमानेमें की गयी थी। बादमें मूल वेदीके दायों और बायीं ओरके दालानमें दो वेदियाँ और बनायी गयीं। इन वेदियोंमें नीलम मरकतकी तथा पाषाणकी संवत् १११२ तककी प्रतिमाएं हैं। एक छत्र स्फटिकका बना हुआ है। यह दिल्लीका प्रथम शिखरबन्द मन्दिर है। इस मन्दिरके निर्माता राजा हरसुखरायजी ने शिखरके लिए बादशाहसे विशेष आज्ञा ली थी। तब शिखर बन सका था। अन्तिम वेदीमें कुल ४२ प्रतिमाएं विराजमान हैं। बायीं ओर तीन पहलूवाली काले पाषाणकी एक प्रतिमा है। इसमें दो ओर १ पद्मासन और खड्गासन प्रतिमाएं हैं। इसके ऊपरका लेख इस प्रकार है सं. १५३ माघ शुक्ला १० चन्द्रे । दूसरी ओर भी यही लेख है। पुरातत्त्ववेत्ताओंके अनुसार यह संवत् १२५३ होना चाहिए। इसी वेदीपर दायीं ओर ऐसे ही पाषाणका एक शिलाफलक तीन पहलूवाला है। इसके ऊपर छोटा-सा शिखर बना हुआ है। इसमें बीचमें पद्मासन तीर्थकर प्रतिमा है। इधर-उधर दोनों पहलुओंपर एक-एक खड्गासन मूर्ति है। दायीं ओर पद्मासन मूर्तिके ऊपर हाथी की सूंड़ बनी हुई है। कहा जाता है कि ये दोनों शिलाफलक महरौलीसे लाये गये थे, वहाँ सम्भवतः प्राचीन कालमें जैन मन्दिर था। इसी वेदीपर एक खड्गासन मूर्ति सं. ११२३ की है। यह गहरे कत्थई रंगको १ फुट अवगाहनाकी है। ___वेदियोंके अतिरिक्त कमरेमें आधुनिक कालका एक सहस्रकूट चैत्यालय है। जिसकी चारों दिशाओं में एक शिलापर १००८ प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। इस मन्दिरमें शास्त्र-भण्डार भी है, शास्त्रोंका संग्रह सुन्दर है । मन्दिर के साथ ही धर्मशाला, शिशु सदन, प्राइमरी स्कूल, लड़कियोंका स्कूल है। जैन मित्र-मण्डल द्वारा संचालित वर्धमान जैन पुस्तकालय भी यहींपर है। ऐसा सुना जाता है कि लगभग ५० वर्ष पूर्व यहाँ की बहुत-सो खण्डित मूर्तियोंको समुद्रमें प्रवाहित करा दिया गया। बहुत-सी मूर्तियोंपर लेख भी थे। राजा हरसुखराय नया मन्दिर धर्मपुराके निर्माता राजा हरसुखराय हिसारवासी लाला हुकूमतरायके सबसे २८
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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