________________
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
पं. भगवतीदासने सन् १६२३ में 'चूनड़ीरास' ग्रन्थकी रचना की थी । उसकी प्रशस्ति में मोतीबाजार स्थित पार्श्वनाथ मन्दिरका उल्लेख किया गया है ।
२१६
उपर्युक्त सब मन्दिर आज कहाँ हैं या कौन-से हैं, अथवा वे नष्ट हो गये, इसकी खोज होना आवश्यक है ।
दिल्ली के कुछ महत्त्वपूर्ण जैन मन्दिर
लाल मन्दिर
यह मन्दिर लालकिले के लाहोरी गेटके सामने चांदनीचौक में है । यह दिल्लीके जैन मन्दिरों में सबसे प्राचीन है । जहाँ यह मन्दिर बना हुआ है, वहाँ मुगल बादशाह शाहजहाँके समय में उर्दू बाजार नामका एक बाजार था । इसलिए शाही जमाने में इसे उर्दू मन्दिर भी कहते थे । इस मन्दिरका नाम लश्करी मन्दिर भी था । कहते हैं, शाही फौजके एक जैन अफसरने एक टेण्ट में अपने दर्शन-पूजन के लिए एक तीर्थंकर प्रतिमा रख ली थी । शाही सेनाके अन्य जैन अधिकारी भी यहाँ दर्शन करने आते थे । धीरे-धीरे उस टैण्टके स्थानमें जैन मन्दिर बनाने की चर्चा चली । फलतः सन् १६५६ में यहाँ इस मन्दिरका निर्माण हुआ । केन्द्रीय स्थानपर होने तथा कुछ दैवी चमत्कारोंके कारण इस मन्दिरकी मान्यता सबसे अधिक होने लगी । एक किंवदन्ती प्रचलित है कि बादशाह औरंगजेबने हुक्म निकाला कि मन्दिरोंमें बाजे न बजाये जायें। शाही हुक्म हो जानेपर भी यहाँ नगाड़े बजते रहे । आश्चर्य की बात तो यह थी कि बाजे बजानेवाला वहाँ कोई दिखाई नहीं पड़ता था । बादशाहको सरकारी अधिकारियोंके कथनपर विश्वास नहीं हुआ । अतः वे स्वयं मन्दिरमें देखने गये, तब उन्हें इसपर विश्वास ही नहीं करना पड़ा, वे बहुत प्रभावित भी हुए और इस मन्दिर में बाजे बजानेकी छूट दे दी। इस मन्दिरके सम्बन्धमें इस प्रकारकी आश्चर्यजनक और भी कई किंवदन्तियाँ सुनी जाती हैं ।
वर्तमानमें मन्दिरमें आठ वेदियाँ हैं । प्राचीन वेदीमें भट्टारक जिनचन्द्र द्वारा सं. १५४८ ( सन् १४९१ ) में प्रतिष्ठित भगवान् पार्श्वनाथकी पद्मासन श्वेत पाषाणकी प्रतिमा लगभग पौने दो फुटकी विराजमान है । उसके अगल-बगलकी मूर्तियाँ भी इसी संवत् की प्रतिष्ठित हैं ।
यहाँ एक वेदीमें पद्मावती देवीकी प्रतिमा विराजमान है, जिसके ऊपर लघु आकारकी पार्श्वनाथ प्रतिमा विराजमान है। जैनोंमें देवीकी इस प्रतिमाकी बड़ी मान्यता है । भक्तजन यहाँ मनौती मनाते हैं और दीपक चढ़ाते हैं ।
इस मन्दिरके मुख्य द्वारके समक्ष मानस्तम्भ और पुष्पवाटिका है । मन्दिरके बाहर उदासीनाश्रम, धर्मशाला, पक्षी - चिकित्सालय ( जो भारतमें अपनी किस्मका एक ही चिकित्सालय है), जैन साहित्य सदन पुस्तकालय आदि लोकोपयोगी संस्थाएँ हैं । मन्दिरका सभा भवन काफी विशाल है ।
नया मन्दिर धर्मपुरा
इसका निर्माण सं. १८५७ (सन् १८०० ) में प्रारम्भ हुआ था और वैशाख सुदी ३ सं. १८६४ (सन् १८०७) में इसकी प्रतिष्ठा हुई। कहते हैं, उस कालमें इसके निर्माणपर आठ लाख रुपये व्यय हुए थे । ( कुछ लोग इस संख्याको पाँच लाख बताते हैं ) मन्दिरकी मूल वेदी मकरानेके संगमरमरकी