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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - प्रांगणमेंसे दूसरे मन्दिरमें जानेपर एक अति भव्य प्रतिमाके दर्शन होते हैं। एक शिलाफलकमें १८ फुट ऊँची भगवान् शान्तिनाथकी मूर्ति है। यही क्षेत्रकी मूलनायक प्रतिमा है। इसका प्रवेश-द्वार पौने तीन फुट ऊँचा और डेढ़ फुट चौड़ा है। द्वारके तोरणपर द्वादश राशियाँ अंकित हैं। चौखटपर खड्गासन और पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। दरवाजेके दोनों ओर दो शिलाओंपर सहस्रकूट चैत्यालयका दृश्य अंकित है। मूलनायक प्रतिमाके हाथ और पैर खण्डित हैं। बादमें हाथोंको सुधार दिया गया है। भगवान्के अभिषेकके लिए दोनों ओर जीने बने हुए हैं। मूलनायकके अतिरिक्त शेष २३ तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ भी हैं जिनमें कुछ खड्गासन हैं, कुछ पद्मासन हैं। इसी प्रकार तीसरे और चौथे मन्दिरोंमें भी प्राचीन मूर्तियाँ विराजमान हैं। मन्दिरसे बाहर धर्मशाला है। धर्मशालाके उस भागमें जहाँ बावड़ौ है तथा प्रांगणमें दीवारके सहारे प्राचीन मूर्तियाँ रखी हैं। मूर्तियोंमे तीर्थंकर प्रतिमाएँ, और देवी-देवताओंकी प्रतिमाएं हैं | देवीमूर्तियाँ इतनी भव्य हैं, जिनकी समानता शायद खजुराहों और देवगढ़ ही कर सकेगा। देवी वस्त्रालंकारोंसे सुसज्जित हैं। हाथोंमे कंगन, गले में मौक्तिक माला, कमर में करधनी और कमरपट्ट हैं। पैरोंमे पायल हैं। इन सबका अंकन इतना सुन्दर हुआ है कि प्रतिमा ही सजीव प्रतीत होती है। बाहुबलीकी एक प्रतिमा तो सचमुच ही अद्भुत है। जहाँ यह मानस्तम्भ बना है, वहाँ खुदाईके समय पाषाणमें अभिलिखित एक मन्त्र और मंगलकलश उपलब्ध हुए थे। जो सुरक्षित रखे
___ यहाँ परकोटेके बाहर एक नयी धर्मशाला बन रही है। उसके कमरोंकी भीतरी दीवालोंमें अनेक मूर्तियाँ उनकी सुरक्षाकी दृष्टिसे चिन दी गयी हैं।
गाँवमें और आसपास २-३ मीलके घेरेमें प्राचीन मन्दिरोंके अवशेष बिखरे पड़े हैं। एक टोलेपर एक पद्मासन जैन मूर्ति रखी हुई है। इस मूर्तिका सिर नहीं है । आम जनता इसे 'बैठा देव' कहकर पूजती है और मनौती मनाती है। इसके धड़ तकका भाग नौ फूट ऊँचा है। इस प्रकारके टीलोंकी संख्या ४२ है जो यहाँ चारों ओर बिखरे हुए हैं। ये प्राचीन मन्दिरोंके धराशायी होनेसे बन गये हैं। 'बैठा देव' के पश्चिममें एक बावड़ी और कूआँ है। उसके निकट आठ जैन मन्दिरोंके खण्डहर हैं। प्रत्येकमें धर्मचक्र है।।
यहाँ मन्दिरके अहातेमें एक बरामदेकी दीवालमें ५३४३३ फुटका एक शिला-फलक लगा हुआ है, जो अभिलिखित है। इसमें वि. संवत् ९६४ से १००५ तकका विवरण दिया गया है। इस शिलालेखसे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि यह क्षेत्र दसवीं शताब्दीमें विद्यमान था। यहाँ देवगढ़के समान ही मूर्तियोंकी बहुलता है । अधिकांश मूर्तियोंपर लेख नहीं हैं। मूर्तियोंकी रचना-शैलीसे अनुमान होता है कि ये मूर्तियाँ गुप्तोत्तर कालकी अर्थात् ७-८वीं शताब्दीकी होनी चाहिए। ____ बाहर धर्मशालाके एक कमरेमें एक चौबीसी है। जिसमें मूलनायक महावीरकी मूर्ति है। यह चौबीसी ६ फुट ऊँची है।
इन मन्दिरोंके परकोटेसे लगभग आठ फलाँग दूर सैकड़ोंकी संख्यामें मूर्तियाँ पड़ी हुई हैं। कहीं-कहीं तो भग्न मूर्तियोंका ढेर लगा हुआ है। अनेक पुराने मन्दिरोंके भग्नावशेष भी पड़े हुए हैं । पुरातत्त्व और कलाकी दृष्टि से इनका मूल्यांकन अभी तक नहीं किया गया है।
देवगढ़ और सैरोन निकट ही अवस्थित हैं । ललितपुरसे देवगढ़ २९ कि. मी. है और सैरोन १९ कि.मी. है। देवगढ़की कला अनिन्द्य है। सैरोनकी कलापर भी उसका प्रभाव पड़ा है। देवगढ़की कलाका बहुत बड़ा भाग जिस समय निष्पन्न हो रहा था, उसी कालमें सैरोनमें उन्हीं कलाकारोंके