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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ लिया। कुछ समय पश्चात् महाराज सिन्धियासे अँगरेजोंने एक सन्धि की, जिसके अनुसार देवगढ़ अंग्रेजोंने ले लिया और उसके बदले चन्देरी महाराज सिन्धियाको दे दिया।
देवगढ़के किलेकी दीवार कब किसने बनवायी, यह कहना कठिन है। किन्तु सुरक्षात्मक दष्टिसे यह दुर्ग अत्यन्त सूढ़ है। इसकी दीवारकी मोटाई १५ फूट है। यह बिना गारे और चुनाके केवल पाषाणकी बनी हुई है। इसमें बुर्ज और गोला चलानेके लिए छेद भी बने हुए हैं। किलेके उत्तर-पश्चिमी कोने में दीवारकी मोटाई २१ फुट और लम्बाई ६०० फुट है। हो सकता है, यह दीवार किसी अन्य किलेकी रही हो, जो नष्ट हो गया।
एक विशेष दिशाकी ओर अबतक लोगोंका ध्यान नहीं गया। देवगढ़ सुरक्षा गढ़ अवश्य रहा है, किन्तु यह कभी किसीकी राजधानी नहीं रहा। प्रकृतिने एक ओर बेतवा नदी और दो ओर पहाड़ोंकी अभेद्य दीवार खड़ी करके जो इसे सुरक्षा प्रदान की है, उसके कारण विभिन्न राजवंशोंने इसे अभेद्य दुर्गके रूपमें रखा और उसकी रक्षाके लिए कुछ सेना भी रखी, किन्तु यहाँ दुर्गके भीतर राजमहल या सैनिकोंकी वैरकोंके कोई चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होते। इसका उद्देश्य इतना ही हो सकता है कि इन देवमूर्तियोंको सुरक्षित रखा जाये। राजवंशोंने इस दुर्गपर आधिपत्यके जो भी प्रयत्न किये, वे केवल इस गौरवके लिए कि वह उन असंख्य देव-प्रतिमाओंका स्वत्वाधिकारी है जो कला सौष्ठव और विपुल परिमाणकी दृष्टिसे देश-भरमें अनुपम है। सम्भव है, अपनी भौगोलिक स्थितिके कारण इस प्रदेशपर दृष्टि रखनेके लिए इसका सैनिक महत्त्व भी रहा हो। लगता है, जब मुसलमान शासक यहाँ आये तो उन्होंने यहाँको इस सांस्कृतिक निधि देव-प्रतिमाओंका खुलकर विध्वंस किया। बुन्देलखण्डमें लोग कहा करते हैं कि देवगढ़में इतनी प्रतिमाएँ हैं कि यदि एक बोरी भरकर चावल ले जायें और हर एक प्रतिमाके आगे केवल एक चावल ही चढ़ाते जायें तब भी चावल कम पड़ जायेंगे। आज वहाँ चारों ओर बिखरे हुए भग्नावशेषोंको देखें तो उक्त बुन्देलखण्डी कहावत असत्य नहीं जान पड़ती।
अतिशय क्षेत्र
इस क्षेत्रके चमत्कारोंके सम्बन्धमें भक्त जनोंमें अनेक प्रकारकी किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कुछ लोगोंका विश्वास है कि क्षेत्रपर रात्रिके समय देव लोग पूजनके लिए आते हैं। वे आकर नृत्यगान-पूर्वक पूजन करते हैं । कुछ ऐसे प्रत्यक्षदर्शी भक्त लोग हैं, जिन्होंने रात्रिके समय मन्दिरोंसे नृत्य और गानकी ध्वनि आती सुनी है। इसो प्रकार भगवान् शान्तिनाथ मनोकामना पूर्ण करते हैं आदि अनेक प्रकारको किंवदन्तियाँ यहाँ क्षेत्रके अतिशयोंको लेकर प्रचलित हैं। इसलिए यह क्षेत्र अतिशय क्षेत्र कहा जाता है।
हिन्दू मन्दिर
यद्यपि कोटके भीतर केवल जैन मन्दिर, मतियाँ आदि ही मिलते हैं, किन्तु इसके बाहर दो हिन्दू मन्दिर और कुछ मूर्तियाँ हैं । नाहर घाटीमें जो गुफा है, उसमें एक सूर्य-मूर्ति, शिव लिंग और सप्त मातृकाओंके चिह्न मिलते हैं। यहीं निकट ही किलेके दक्षिण-पश्चिम कोने पर वाराहजीका एक मन्दिर है। यह मन्दिर विध्वस्त पड़ा है। मन्दिरके पास वाराहजीकी मूर्ति पड़ी है। उसकी एक टाँग खण्डित है। किलेके नीचे एक विष्णु मन्दिर है। इसका ऊपरका अंश नष्ट हो चुका है। यह मन्दिर गुप्तकालका कहा जाता है। यह मन्दिर पत्थरके जिन टुकड़ोंसे बना है, उन