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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ
१९३ श्रावक-श्राविकाओंकी अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं, किन्तु वे तीर्थंकर, आचार्य और उपाध्यायके निकट अंजलिबद्ध या विनयावनत मुद्रामें मिलती हैं। उनका स्वतन्त्र अंकन बहुत कम मिलता है।
(५) फुटकर मूर्तियाँ-इसमें हम प्रकृति-चित्रण, प्रतीकांकन और उत्सव आदिको ले सकते हैं। यहाँके कलाकारोंको कुछ धार्मिक नियम और मर्यादाके वातावरणमें कार्य करना पड़ता था। किन्तु प्रकृतिके इस सुषमा-केन्द्रमें बैठकर प्रकृतिके सौन्दर्यसे व्यामोहित न हों, यह कैसे सम्भव था। पर्वतकी सुरम्य अधित्यका, नीचे कलकल शब्द करती हुई बेतवा, सुरभित समीर और पक्षियोंका उन्मुक्त कूजन ! कलाकार मोहित हो गया। प्रकृति-सौन्दर्य ही तो उसकी प्रेरणा-शक्ति है । प्रकृतिका स्वतन्त्र अंकन करनेका अवकाश न सही किन्तु मूर्तियों के बहाने उसने उदीयमान सूर्य, धवल ज्योत्स्ना बिखेरता पूर्णचन्द्र, प्रशान्त समुद्र, सरोवरमें किलोलें करता हुआ मत्स्य-युगल, लक्ष्मीका अभिषेक करता हुआ गज-युगल, अपनी ३२ ढूँड़ोंको लहराता हुआ ऐरावत हाथी, निर्धूम अग्नि, नागेन्द्र भवन, रत्नजड़ित सिंहासन, आम्रगुच्छक, कल्पलता, अशोक वृक्ष, कमल, पुष्पपत्रावली आदिका भव्य अंकन किया। स्तम्भों, देवकुलिकाओं और भित्तियोंपर मूर्तियों और शिरदलोंमें उसने प्रकृति चित्रण किया है। वास्तवमें यहाँ आकर उसकी कला अत्यन्त मुखर हो उठी है। आनन्दमें भरकर उसने लोक जीवनके आनन्द पर्वोका भी, कठोर पाषाणको छैनी-हथौड़ेसे अपनी इच्छानुकूल रूप देकर, अंकन किया है।
इसी प्रकार तीर्थंकर माताके १६ स्वप्न, चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृष, स्वस्तिक, अष्टप्रातिहार्य आदि प्रतीकोंका अंकन भी अत्यन्त भव्य हुआ है। प्रेरक और प्रतिष्ठापक
यहाँ स्थित अभिलेखोंसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि यहाँ अनेक मूर्तियोंका निर्माण साधुओं या अजिंकाओंकी प्रेरणा या उपदेश द्वारा हुआ है। आर्यिकाओं में इन्दुआ, आर्यिका गणी, आर्यिका धर्मश्री, आर्यिका नवासी, आर्यिका मदनका नाम मिलता है। इसी प्रकार साधओंमें लोकनन्दीके शिष्य गुणनन्दी, कमलसेनाचार्य और उनके शिष्य श्रीदेव त्रिभुवनकीर्ति, जयकीति, भावनन्दी, चन्द्रकीर्ति, यशःकीति, आचार्य नागसेनाचार्य, कनकचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, हेमचन्द्र, धर्मचन्द्र, रत्नकीति, प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र, देवेन्द्रकीर्ति आदिने यहाँ मन्दिर-निर्माणकी प्रेरणा की अथवा प्रतिष्ठा करायी। राजनीतिक स्थिति
उपर्युक्त विवरणसे सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यहाँपर कला और पुरातत्त्वकी जो सम्पदा सुरक्षित है, वह अनुपम है। लगता है कि बुन्देलखण्डमें उस समय जैनोंका पर्याप्त प्रभुत्व एवं प्रभाव रहा है । कलाकी दृष्टिसे इसे हम इस प्रदेशका स्वर्ण काल कहें तो अनुचित नहीं होगा। .......--इस प्रदेशपर किस वंशका कितने काल तक प्रभुत्व रहा, इसका कुछ आनुमानिक विवरण पुरातत्त्व विभागने देनेका प्रयत्न किया है। उसके अनुसार हजारों वर्ष पहले यहाँ शबर जातिका आधिपत्य था। पश्चात् पाण्डवों ( ईसासे ३००० वर्ष पूर्व ), सहरी ( समय अज्ञात ), गोंड ( समय अज्ञात ), गुप्त वंश ( ३०० से ६०० ई.), देववंश ( ९५० से ९६१ ई.), चन्देल वंश (१००० से १२१० ई.), मुगल(१२५० से १६०० ई.), बुन्देल वंश ( १७०० से १८११ ई.) तत्पश्चात् अँगरेजोंका यहाँ आधिपत्य रहा । सन् १८११ में महाराज सिन्धियाने अपनी फौज भेजकर इसपर आधिपत्य कर
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