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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ कला-वैविध्य
यहाँके सभी मन्दिर पाषाणके हैं और इनमें चूने-गारेका कोई उपयोग नहीं किया गया है। हाँ कलाकी विभिन्न कालोंकी विविध शैलियोंके दर्शन होते हैं। यहाँ गण और परिमाणकी दष्टिसे बहुल विविध प्रकारकी कला-वस्तुएँ मिलती हैं । इन विविध कलाकृतियोंको हम सुविधाकी दृष्टिसे ५ भागोंमें विभाजित कर सकते हैं।
(१) तीर्थंकर मूर्तियाँ–यहाँ तीर्थंकर मूर्तियाँ अन्य सब मूर्तियोंकी अपेक्षा अत्यधिक हैं। . तीर्थकर मूर्तियोंमें कुछ मूर्तियाँ बहुत प्राचीन है। मन्दिर नम्बर १२ के महामण्डपमें एक सिंहासनपर एक शिलाफलक रखा हुआ है। उस फलकपर लगभग सवा चार फुट अवगाहनावाली एक मूर्ति है। यह यहाँकी सर्वाधिक प्राचीन मूर्तियोंमेंसे है। सिंहासनपर बीच में धर्मचक्र और उसके दोनों ओर सिंह बने हुए हैं । मूर्तिके घुटने और नाक कुछ खण्डित हैं।
मन्दिर नम्बर १५ के मण्डपमें एक पद्मासन मूर्ति गुप्तकालके तुरन्त बादकी है। वास्तवमें यह मूर्ति भारतीय मूर्तिकलामें अपने ढंगकी अनूठी है।
सबसे विशाल मूर्तियोंमें मन्दिर नम्बर १२ में एक मूर्ति १२ फुट ४ इंच की है । यह भगवान् शान्तिनाथकी कहलाती है। मन्दिर नम्बर ६ में पद्मासन मूर्ति, मन्दिर नम्बर ९ में खड्गासन अभिनन्दननाथकी मूर्ति और मन्दिर नम्बर १५ में पद्मासन नेमिनाथकी मूर्तियाँ सर्वाधिक सुन्दर मूर्तियोंमें मानी जाती हैं । ये मूर्तियाँ गुप्तकाल की हैं। मन्दिर नम्बर २,२१ और २८ में भी कई मूर्तियाँ गुप्तकाल या उसके तत्काल बादकी हैं। १०-११वीं शताब्दीकी तो अनेक मूर्तियाँ हैं ।
यहाँ तीर्थंकर मूर्तियोंमें वैविध्य भी दर्शनीय है। यहाँ द्विमूर्तिकाएँ, त्रिमूर्तिकाएँ, सर्वतोभद्रिकाए", चौबीसी प्रतिमाएं प्रचुर संख्यामें उपलब्ध हैं।
जटाओं सहित प्रतिमाएँ भी यहाँ बहुत हैं। जटाओंके विविध रूप भी देखनेको मिलते हैं। कहीं पाँच लटे कन्धेपर लहरा रही हैं तो कहीं कन्धेपर आती हुई दो लटें लटकते-लटकते बीसियों लटोंमें बदल गयी हैं । कहीं सिरपर उठी हुई लटोंकी चोटी बंधी दिखाई पड़ती है तो कहीं ये लटें पैरों तक पहुंच रही हैं। ऐसा लगता है कि यहाँ आकर कलाकी धारा सारे विधि-विधानों और बन्धनोंको तोड़कर उन्मुक्त भावसे प्रवाहित हो उठी है।
फणावलीवाली प्रतिमाएँ प्रायः पार्श्वनाथकी होती हैं। किन्तु कुछ ऐसी फणवाली प्रतिमाएँ यहाँ मिलती हैं जो पार्श्वनाथके अतिरिक्त अन्य तीर्थंकरोंकी भी हैं। मन्दिर नम्बर १२ के महामण्डपमें ( दायेंसे बायीं ओर तीसरी) नेमिनाथ प्रतिमा, ( जैन चहारदीवारीके प्रवेश-द्वारके दायीं ओर बाहर ऊपर दूसरे स्थान पर ) तथा सुमतिनाथ प्रतिमाके ऊपर फणावली है, जबकि इन दोनों तीर्थंकरोंका लांछन पादपीठपर स्पष्ट अंकित है। पंच फणावलीवाली सुपार्श्वनाथ और सप्त फणावलीयुक्त पार्श्वनाथकी अनेक मूर्तियाँ यहाँपर हैं। सर्प-कुण्डलीके आसनपर बैठी पार्श्वनाथ प्रतिमाएँ भी कई हैं । सर्प-कुण्डली आसन बनाती हुई और पीठके पीछे होती हुई ऊपर गरदन तक गयी है। उसके बाद सिरपर फणावलीका छत्र तना हुआ है।
(२) देव, देवियोंकी मूर्तियाँ–यहाँ इन्द्र, इन्द्राणी, यक्ष, यक्षी, विद्यादेवियाँ, लक्ष्मी, सरस्वती, नवग्रह, गंगा-यमुना, नाग-नागी, उद्घोषक, कीर्तिमुख, कीचक और क्षेत्रपाल आदिकी अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं। इन्द्र-इन्द्राणी तीर्थंकरोंके साथ दिखाये गये हैं। उद्घोषक देव भी तीर्थंकर परिकरमें प्रदर्शित हैं। शेष देव और देवियोंकी मर्तियाँ तीर्थंकरोंके साथ भी और स्वतन्त्र भी मिलती हैं । देव-देवियोंमें सर्वाधिक मूर्तियाँ यक्षियोंकी प्राप्त हुई हैं। यक्षोंमें केवल गोमुख, गोमेध