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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस प्राचीरके मध्यमें भी एक दीवार बनायी गयी है जिसके दोनों ओर खण्डित-अखण्डित मूर्तियाँ पड़ी हैं। सभी मन्दिर पत्थरके हैं। विशाल प्राचीरके दक्षिण-पश्चिममें बराह-मन्दिर और दक्षिणमें बेतवाके किनारे नाहर घाटी और राजघाटी है।
यद्यपि यहाँ छोटे-बड़े ४० जैनमन्दिर हैं. किन्तु इनमें ३१ मन्दिरोंका कला-सौष्ठव उल्लेखनीय है। मन्दिरोंकी अपेक्षा यहाँकी मूर्तियाँ शिल्पचातुर्य के उत्तम नमूने हैं। इन मन्दिरोंके अतिरिक्त यहाँ १९ पाषाण-स्तम्भ हैं और लगभग ५०० अभिलेख हैं । इतिहास
गुर्जर प्रतिहार नरेश भोजदेवके शासनकालीन वि. सं. ९१९ के शिलालेखसे पता चलता है कि पहले इस स्थानका नाम लुअच्छगिरि था। १२वीं शताब्दीमें चन्देलवंशी राजा कीर्तिवर्माके मन्त्री वत्सराजने इस स्थानपर एक नवीन दुर्गका निर्माण कराया और अपने स्वामीके नामपर इसका नाम कीर्तिगिरि रखा। सम्भवतः १२-१३वीं शताब्दीमें इस स्थानका नाम देवगढ़ पड़ गया। देवगढ़के इस नामकरणका कारण क्या है, इस सम्बन्धमें विद्वानोंमें ऐकमत्य नहीं है। श्री पूर्णचन्द्र मुखर्जीका अभिमत है कि इस स्थानपर सन् ८५० से ९६९ तक देववंश का शासन रहा । इसलिए इस गढ़को देवगढ़ कहा जाने लगा। किन्तु यह मान्यता निर्दोष नहीं है क्योंकि इस कालमें यहाँ गुर्जर प्रतिहारवंशी राजाओं का राज्य था।
एक स्तम्भपर वि. संवत् ९१९ का एक अभिलेख है। उसके अनुसार उस स्तम्भके प्रतिष्ठापक आचार्य कमलदेवके शिष्य श्रीदेव बड़े प्रभावशाली थे। उन्होंने यहाँपर भट्टारक गढ़ीको स्थापना की थी। अतः यह स्थान भट्टारकोंका गढ रहा है और उनके नामके अन्तमें देव शब्द रहता था। इस कारण इस स्थानका नाम देवगढ़ प्रसिद्ध हो गया। ___ तीसरी मान्यता, जो अधिक बुद्धिगम्य प्रतीत होती है, यह कि यहाँ असंख्य देव-मूर्तियाँ हैं । इसीसे इसका नाम देवगढ़ पड़ गया।
देवगढ़ नामके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती बहुप्रचलित है। देवपत और खेमपत नामक दो भाई थे। उनके पास एक पारसमणि थी, जिसके प्रभावसे वे असंख्य धनके स्वामी बन गये थे। उस धनसे उन्होंने देवगढ़का किला और मन्दिर बनवाये। तत्कालीन राजाको जब इस पारसमणिका पता चला तो उसने देवगढ़पर चढ़ाई करके उसपर अपना अधिकार कर लिया। किन्तु उसे पारसमणि नहीं प्राप्त हो सकी क्योंकि उसे तो उन धर्मात्मा भाइयोंने बेतवा के गहरे जलमें फेंक दिया था।
सम्भवतः उसी देवपतके नामपर इसका नाम देवगढ़ पड़ गया।
ऐसी भी मान्यता है कि इस स्थानकी रचना देवोंने की थी। इसलिए इसे देवगढ़ कहा जाने लगा।
ऐतिहासिक दृष्टिसे देवपत और खेमपत कब हुए अथवा उपर्युक्त किंवदन्ती में कितना तथ्य है, यह तो विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु यह निश्चित है कि बुन्देलखण्ड में ऐसा भी एक समय आया था, जब यहाँ जैनोंका पर्याप्त प्रभाव और वर्चस्व था। इसे हम इस प्रदेशका स्वर्ण-काल कह सकते हैं क्योंकि इस समय कलाको सभी दिशाओंमें खुलकर विकास
१. मन्दिर नं. १२ के अर्धमण्डप के दक्षिण-पूर्वी स्तम्भपर उत्कीर्ण अभिलेख । २. राजघाटीमें वि. सं. ११५४ का अभिलेख ।