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देवगढ़
अवस्थिति
देवगढ़ क्षेत्र उत्तर प्रदेशमें झाँसी जिलेमें ललितपुर तहसीलमें बेतवा नदीके किनारे अवस्थित है। यह ललितपुरसे दक्षिग-पश्चिममें ३१ कि. मो. की पक्की सड़कसे दूरीपर है। प्रतिदिन बस जाती है । ललितपुरसे इसका मार्ग इस प्रकार है-ललितपुरसे जीरोन १६ कि. मी.। वहाँसे जाखलौन ६ कि. मी.। वहाँसे सेपुरा ३ कि. मी. । सेपुरासे देवगढ़ ६ कि. मी. । जाखलौन स्टेशनसे १३ कि. मी. दूर है । पक्का डामर रोड है।
मार्ग पहाड़ी घाटियोंमें से होकर जाता है। देवगढ़ एक छोटा-सा गाँव है। जिसमें लगभग ३०० की आबादी है। यह बेतवाके मुहानेपर निचाईपर बसा हुआ है। विन्ध्यपर्वतकी श्रेणियोंको काटकर बेतवा नदीने यहाँ बड़े ही सुन्दर दृश्य उपस्थित किये हैं। देवगढ़का प्राचीन दुर्ग जिस पर्वतपर है, बेतवा नदी ठीक उसके ४०० फुट नीचेसे बहती है। यह पहाड़ उत्तर-द लगभग एक मील लम्बा और पूर्व-पश्चिम में लगभग छह फलाँग चौड़ा है। इस पहाड़ी के नीचे एक दि. जैनधर्मशाला, दिगम्बर जैनमन्दिर, और साह जैन संग्रहालय है। संग्रहालयकी स्थापना साह जैन ट्रस्टकी ओरसे सन् ६८ में हई थी। धर्मशालाके बराबरमें ही वन-विभागका विश्रामगह है। ग्रामके उत्तरमें प्रसिद्ध दशावतार मन्दिर और शासकीय संग्रहालय है। पूर्वमें पहाड़ीपर उसके दक्षिण-पश्चिमी कोने में जैनमन्दिर और अन्य जैनस्मारक हैं।
पहाड़ीपर चढ़नेके लिए पूर्वकी ओर रास्ता बना हुआ है। रास्तेमें एक तालाब भी है। पहाड़पर जानेके लिए पक्का डामर रोड है। बस और कार ठीक मन्दिरके द्वार तक पहुँच जाती है। धर्मशालासे क्षेत्र ३९७१ फूटकी दूरीपर है। इसमें धर्मशालासे पहाड़ी तक १५५० फुट और उसके बाद चढ़ाई प्रारम्भ होनेसे पुरानी दीवारोंमें जो दरवाजा है वह ७२१ फुट और इस दरवाजेसे क्षेत्र १७०० फुट की दूरीपर है। दिग्दर्शन
पहाड़ीके नीचे जो धर्मशाला है, उसके पास ही एक पुराना मन्दिर दिखाई देता है जिसे गुप्त-मन्दिर कहते हैं। यह गुप्तकालीन स्थापत्य कलाके सुन्दरतम नमूनोंमें से एक है। मन्दिरकी चहारदीवारी और उसके चारों ओरके अवशेषोंको देखनेसे प्रतीत होता है कि इसके चारों ओर
और भी कई मन्दिर रहे हैं। पहाड़ीकी तलहटीमें स्थित ये सब भवन, मन्दिर, धर्मशाला, विश्रामगृह आदि अत्यन्त मनोरम स्थानपर अवस्थित हैं। पीछेकी ओर बेतवा नदी न केवल बहती हुई दिखाई देती है अपितु उसकी कलकल ध्वनि भी कानों में पड़ती है। क्षेत्रपर पहाड़ीकी चढ़ाई समाप्त होते ही पहाड़ीकी अधित्यकाको घेरे हुए एक विशाल प्राचीर मिलती है, जिसके पश्चिममें कुंज द्वार तथा पूर्वमें हाथी दरवाजा है। दुर्गकी दीवार स्थान-स्थानपर टूटी हुई है। इस प्राचीरके मध्यमें एक प्राचीर और है जिसे दूसरा गेट कहते हैं। इसीके मध्य जैनस्मारक हैं। दूसरे कोटके मध्यमें भी एक छोटा प्राचीर है जिसके अवशेष अब भी मिलते हैं।