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________________ १७४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ यहाँ भगवान् महावीरका भी समवसरण आया था। जब भी भगवान्का विहार वैशालीसे श्रावस्तीकी ओर होता था तो मार्गमें इस स्थानपर भी पधारते थे। इसी प्रकार वैशालीसे विहार करते हुए भगवान् काकन्दी, ककुभग्राम होते हुए श्रावस्ती जाते थे। यह नगर श्रावस्तीसे सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, हस्तिग्राम, मण्डग्राम, वैशाली, पाटलिपुत्र, नालन्दा राजमार्गपर था। पूर्वी भारतके इस महत्त्वपूर्ण राजमार्गपर अवस्थित होनेके कारण नगरकी समृद्धि भी निरन्तर बढ़ रही थी। देश-विदेशके सार्थवाह बराबर आते-जाते रहते थे। भगवान् पुष्पदन्तका दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणकका स्थान होनेके कारण सुदूर देशोंके भी यात्री यहाँ तीर्थ वन्दनाको आते रहते थे। इसलिए अति प्राचीन कालसे ही यहाँ जैनमन्दिर, मानस्तम्भ और स्तूपोंका निर्माण होने लगा था। मौर्य और गुप्तकाल में इस प्रकारके निर्माण विपुल परिमाणमें यहाँ हुए। फिर पता नहीं किस कालमें किस कारणसे इन प्राचीन धर्मायतनों और कलाकृतियोंका आकस्मिक विनाश हो गया। सम्भवतः श्रावस्ती आदि निकटवर्ती तीर्थोंकी तरह सुल्तान अलाउद्दीनके सिपहसालार मलिक हव्वसने इसका भी विनाश कर दिया और इसे खण्डहर बना दिया। इसके बाद इसका फिर पुनरुद्धार नहीं हो पाया। इन धर्मायतनोंके भग्नावशेषोंपर एक छोटे-से गाँवका निर्माण अवश्य हो गया। गाँवके पुननिर्माणके समान इसके नामका भी पुननिर्माण हो गया और ककुभग्राम ही बदलते-बदलते कहाऊँ बन गया। . ये अवशेष काफी बड़े क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं। एक टे-फटे कमरेमें, जिसके ऊपर छत नहीं है, एक दीवालमें आलमारी बनी हुई है। उसमें ५ फूट ऊँची सिलेटी वर्णकी तीर्थंकर प्रतिमा कायोत्सर्गासनमें अवस्थित है। प्रतिमाका एक हाथ कुहनीसे खण्डित है। दोनों पैर खण्डित हैं। बाँह और पेट क्रेक हैं। छातीसे नीचे पेटका भाग काफी घिस गया है। मुख ठीक है । ग्रामीण लोग तेल-पानीसे इसका अभिषेक करते हैं। ___ इस कमरेके बाहर एक भग्न चबूतरेपर एक मूर्ति पड़ी हुई है। यह तीर्थंकर मूर्ति है। रंग सिलेटी है तथा अवगाहना ४ फुटके लगभग है। यह खड्गासन है। यह इतनी घिस चुकी है कि इसका मुख तक पता नहीं चलता। मूर्ति-पाषाणमें परतें निकलने लगी हैं। इन मूर्तियोंसे उत्तर दिशामें गाँवकी ओर बढ़नेपर प्राचीन मानस्तम्भ मिलता है। यह एक खुले मैदानमें अवस्थित है। इसके चारों ओर प्राचीन भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। यदि यहाँ खुदाई करायी जाये तो भगवान् पुष्पदन्तका प्राचीन जैनमन्दिर निकलनेकी सम्भावना है क्योंकि मानस्तम्भ सदा मन्दिरके सामने रहता है। यदि यहाँ जैनमन्दिर निकल सका तो उससे गुप्तकालकी कला और इतिहासपर नया प्रकाश पड़ सकता है। मानस्तम्भ भरे पाषाणका है और २४ फुट ऊँचा है। स्तम्भ नीचे चौपहल, बीचमें अठपहलू और ऊपर सोलह पहलू है। जमीनसे सवा दो फुट ऊपर भगवान् पार्श्वनाथकी सवा दो फुट अवगाहनावाली प्रतिमा उसी पाषाणस्तम्भमें उकेरी हुई है। यह पश्चिम दिशामें है। चरणोंके दोनों ओर भक्त स्त्री-पुरुष हाथोंमें कलश लिये चरणोंका प्रक्षालन कर रहे हैं। मूर्तिके पीठके पीछे सर्प-कुण्डली बनी हुई है और सिरके ऊपर फणमण्डप है। ___ स्तम्भके मध्यमें, बारह पंक्तियोंमें, उत्तर दिशाकी ओर ब्राह्मी लिपिमें लेख अंकित है, जो इस प्रकार है १. यस्योपस्थानभूमिर्नुपतिशतशिरःपातवातावधूता २. गुप्तानां वंशजस्य प्रविसतयशसस्तस्य सर्वोत्तमर्धेः।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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