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उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तीर्थ
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गर्भगृह के बाहर सभामण्डप, इधर-उधर कमरे और आगे सहन है । मन्दिरके चारों ओर कम्पाउण्ड है । कम्पाउण्डके बाहर दूसरा कम्पाउण्ड है, जिसमें पक्का कुआँ, स्नानघर, एक कमरा बना हुआ है । मन्दिरसे दूसरे कम्पाउण्डमें आनेपर बायीं ओर कम्पाउण्डके बाहर एक टीला है, जिसके ऊपर एक छतरी बनी हुई है । उसमें पाषाण चरण विराजमान हैं। चरणोंका माप ७ इंच है। इनको सन् १९५१ में विराजमान किया गया है।
इसी समय इस टीलेकी खुदाई करायी गयी थी । खुदाईके फलस्वरूप इसमें एक वेदी निकली थी, किन्तु फिर वह बन्द कर दी गयी । यह टीला पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में है । यह टीला २००x१५० फुट है |
काकन्दीके पुजारी तथा कई अन्य प्रत्यक्षदर्शियोंसे ज्ञात हुआ कि पहले यहाँ भूगर्भसे भगवान् नेमिनाथकी एक खड्गासन प्रतिमा निकली थी, जिसका आकार लगभग सवा तीन फुट था । वह वेदीपर मूलनायकके रूपमें विराजमान थी । प्रतिमा बड़ी कलापूर्ण और सुन्दर थी । उस प्रतिमाका कान कुछ खण्डित था । कुछ वर्ष पहले खण्डित मानकर उस प्रतिमाको घाघरा नदी प्रवाहित कर दिया गया। इस प्रकार गुप्तकाल अथवा उससे भी प्राचीन कालकी एक कलापूर्ण प्रतिमासे समाज वंचित हो गया । सम्भवतः कनिंघमने इसी मूर्तिको आदि बुद्धकी मूर्ति लिखा था ।
मार्ग
ककुभग्राम
ककुभ ग्राम वर्तमान में 'कहाऊँ' गाँव के नामसे प्रसिद्ध है । यह देवरिया जिलेमें परगना सलेमपुर से ५ कि. मी., काकन्दीसे १६ कि. मी. और गोरखपुरसे ७३ कि. मी. की दूरी पर है । कदीसे यहाँ तकका मार्ग कच्चा है । बस और जीप जा सकती है । यह एक छोटा सा गाँव है, जो ईंटोंके खण्डहरोंपर बसा हुआ है । जिस टीलेपर यह गाँव आबाद है, वह लगभग आठ सौ वर्ग गज है ।
तीर्थक्षेत्र
भगवान् पुष्पदन्तको जन्मभूमि काकन्दी यहाँसे केवल १६ कि. मी. दूर है । पहले यहाँ ग्राम नहीं था, वन था, जो काकन्दी नगरीके बाहर था । भगवान् पुष्पदन्तने काकन्दीके इसी वनमें दीक्षा ली थी। उस वनमें कुटज जातिके वृक्ष अधिक थे। सारा वन उनके पुष्पोंसे मुखरित और सुरभित रहता था । उन्होंने पौष शुक्ला ११को इस वनमें दीक्षा ली थी। इस ऋतु में वन चारों ओर पुष्पित था । कुटज जात्तिके वृक्षोंके अतिरिक्त इस वनमें अर्जुनके वृक्ष अधिक संख्या में थे। इसलिए इस वनको 'कुकुभ' वन' कहा जाता था । देवों, इन्द्रों और मनुष्योंने यहीं पर भगवान्का दीक्षा कल्याणक मनाया था। इसके चार वर्ष पश्चात् इसी वनमें कार्तिक शुक्ला तृतीयाको केवलज्ञान हुआ । यहीं प्रथम समवसरण लगा और यहीं धर्मचक्र प्रवर्तन हुआ । अतः भक्त जनता में यह तीर्थक्षेत्र के रूपमें प्रख्यात हो गया। पश्चात् इस वनके स्थान में ग्राम बस गया और वह कुकुभ वनके नामपर ककुभग्राम कहलाने लगा ।
१. ककुभका अर्थ है, कुटज जातिके पुष्प, अर्जुन वृक्ष ( हिन्दी विश्वकोष ) ।