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________________ उत्तरप्रदेश के दिगम्बर जैन तोथं अणुहाए पुरुसे सिदपक्खे कारसीए अवरहे । पव्वज्जओ पुप्फवणे तदिए खवणम्मि पुप्फयन्तजिणो ४ ६५२ ।। १७१ अर्थात् पुष्पदन्त भगवान् पौष शुक्ला एकादशीको अपराह्न समयमें अनुराधा नक्षत्रके रहते पुष्पकवनमें तृतीय भक्त के साथ दीक्षित हुए । उन्होंने दो दिनके उपवासके पश्चात् शैलपुर नगरके अधिपति राजा पुष्पमित्र के घर जाकर पारणा की । भगवान् चार वर्षं तक विविध क्षेत्रों, वनों और पर्वतोंपर कठोर आत्म-साधन और तप करते रहे। चार वर्षं बाद विहार करते हुए वे काकन्दी नगरीके पुष्पकवन ( दीक्षावन ) में पधारे। उस वनमें दो दिनके उपवासका नियम लेकर वे एक नागवृक्षके नीचे ध्यान लगाकर बैठ गये । उन्हें आत्माकी निरन्तर विकासमान शुद्ध परिणतिके द्वारा कार्तिक शुक्ला तृतीयाको केवलज्ञान प्राप्त हो गयी। इस प्रसंग में 'तिलोय पण्णत्ति' ग्रन्थ की निम्नलिखित गाथा उल्लेखनीय है— कत्तिय सुक्के लइये अवरहे मूलभे य पुप्फवणे । सुविहजिणे उप्पण्णं तिहुवण संखोभयं गाणं ||४|६८६॥ अर्थात् पुष्पदन्त ( सुविधिनाथ ) तीर्थंकरको कार्तिक शुक्ला तृतीयाके दिन अपराह्न कालमें मूल नक्षत्र के रहते पुष्पवनमें तीनों लोकोंको क्षोभित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने समवसरणकी रचना की और भगवान्का लोककल्याणकारी प्रथम उपदेश यहीं हुआ । इन कल्याणकोंके कारण यह स्थान तीर्थक्षेत्र माना जाने लगा । प्राचीन कालमें अनेक जैनमुनियोंने यहाँसे तपस्या कर मुक्ति प्राप्त की । भगवती आराधना ( गाथा १५५० ) और 'आराधनाकथाकोष' ( कथा ६७ ) में अभयघोष नामक एक मुनिकी कथा आती है । अभयघोष काकन्दीके राजा । उन्होंने एक बार एक कछुएकी चारों टाँगें तलवारसे काट दीं, जिससे वह मर गया और मरकर उनके घरमें ही उनका पुत्र बना । चन्द्रग्रहण देखकर अभयघोषने मुनि दीक्षा ले ली । एक बार वे काकन्दीके बाहर उद्यानमें तपस्या में लीन थे । उनका पुत्र चण्डवेग भ्रमण करते हुए वहाँ से निकला । जैसे ही उसने मुनि अभयघोषको देखा, उसके मनमें पूर्वजन्म सम्बन्धी संस्कारोंके कारण क्रोधकी प्रबल अग्नि प्रज्वलित हो उठी । उसने अपने द्वेषके प्रतिकार के लिए इस अवसरको उपयुक्त समझा क्योंकि वह जानता था क्षमामूर्ति मुनिराज उसके किसी अत्याचारका प्रतिकार नहीं करेंगे। उसने तीक्ष्ण धारवाले किसी शस्त्रसे निर्दयतापूर्वक उनके अंगों को काटना प्रारम्भ किया । ध्यानलीन मुनिराज आत्मनिष्ठ थे । तिल-तिल करके उनका शरीर कट रहा था, किन्तु उनका हर क्षण आत्मसान्निध्य में व्यतीत हो रहा था । उनका ध्यान एक पलके लिए भी देहकी ओर नहीं गया । ज्यों ही उनके अंगका अन्तिम भाग कटा, उनके आत्मामें असंख्य सूर्यो का - सा प्रकाश फैल गया, उन्हें केवलज्ञान हो गया; वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गये और वहींसे उन्होंने निर्वाण की प्राप्ति की । देवोंने भक्तिभावपूर्वक उनकी पूजा की। यहाँ भगवान् महावीरका समवसरण कई बार आया था। यह नगर साकेत - श्रावस्ती - वैशाली - नालन्दा राजमार्गपर अवस्थित था । अतः प्राचीन कालमें यहाँ तीर्थयात्री भी तीर्थ-यात्रा के लिए निरन्तर आते रहते थे । यहाँ भक्त राजपुरुषों और श्रेष्ठियोंने अनेक देवालयों, देवमूर्तियों, शासन देवताओंकी प्रतिमाओं, चैत्यवृक्षों और स्तूपोंका निर्माण कराया था । किन्तु धर्मद्वेष और धर्मोन्माद इन
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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