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________________ १५६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् हुए। उनके नामपर ही हमारे देशका नाम 'भारतवर्ष पड़ा। उन्होंने भोगकी सम्पूर्ण सामग्री की उपस्थितिमें भी अपनी निष्काम प्रवृत्ति द्वारा एक आदर्श स्थापित किया। अयोध्या अनेक धार्मिक परम्पराओंकी उद्गम स्रोत रही है। चक्रवर्ती भरतने अयोध्याके बाहर चारों दिशाओंमें चौबीस तीर्थकरोंकी प्रतिमाएं और स्तूप निर्मित कराये। नगरके पूर्वद्वार पर ऋषभ और अजित की, दक्षिण द्वारपर सम्भवनाथ आदि चार तीर्थंकरों की,-पश्चिम द्वारपर सुपार्श्वनाथ आदि आठ तीर्थकरोंकी और उत्तर द्वारपर धर्मनाथ आदि दस तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएँ और स्तूप बनवाये। इस प्रकार संसार में सर्वप्रथम मूर्तिकलाका उदय और स्तूपोंका प्रचलन भी यहींसे प्रारम्भ हुआ। इनके अतिरिक्त सम्राट भरतने चौबीस तीर्थंकरोंकी वन्दनाके लिए बहमुल्य रत्नोंसे बने हुए, सुवर्णकी रस्सियोंसे बँधे हुए और जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाओंसे सजे हुए बहुतसे घण्टे बनवाये और ऐसे चौबीस घण्टे बाहरके दरवाजेपर, राजभवनके महाद्वार पर और गोपुर द्वारोंपर अनुक्रमसे टैंगवा दिये। जब चक्रवर्ती उन द्वारोंसे आते या जाते, तब मुकुटके अग्रभागके टकरानेसे उन घण्टोंसे शब्द निकलता था और उन्हें तीर्थंकरोंका स्मरण हो आता था। भरत द्वारा लगाये हुए घण्टोंको देखकर नगरवासियोंने अपने घरोंके तोरणोंमें जिन-प्रतिमासे युक्त घण्टे बाँधने प्रारम्भ कर दिये । चूंकि भरतने बड़े घण्टों और छोटी घण्टियोंकी ये मालाएं अरहन्त भगवानकी वन्दनाके लिए बनवायी थीं, इसलिए उनका नाम वन्दनमाला पड़ गया और आजतक मांगलिक चिह्नके रूपमें वन्दनमाला या बन्दनवार बाँधी जाती है। . इसके पश्चात् मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्रके कारण अयोध्याको विशेष ख्याति प्राप्त हुई। संसारमें लोकमान्य मर्यादाओंकी रक्षा, पितृ-भक्ति, बन्धु-प्रेम. सतीत्व आदि अनेकविध आदर्शोके निर्झर राम-चरित्रके उत्तंग शिखरसे प्रवाहित हुए। जिन्होंने भारतीय संस्कृति और गरिमाको चारों ओरसे आप्लावित कर लिया। संसारके राज्य शासनके लिए तो राम-राज्य एक स्पृहणीय आदर्शके रूपमें आजतक स्मरण किया जाता है। धधकती हुई अग्नि-ज्वालाओंमें कूदकर भगवती सीताने अपने सतीत्वकी सार्वजनिक परीक्षा जिस आत्मविश्वास और साहसके साथ दी थी, उसने महासती सीताके निष्कलंक चरित्रकी गरिमाको लोक-लोकान्तरोंमें व्याप्त कर दिया। इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेकों महत्त्वपूर्ण घटनाएँ यहाँ घटित हुई, जिन्होंने लोकमानस पर अपनी गहरी छाप अंकित की। राजा वसुके राजदरबारमें नारद और पर्वतका लोकविख्यात संवाद भी यहीं हुआ था, जिसने यज्ञोंमें हिंसाका सूत्रपात किया। सगर चक्रवर्तीने भी इसीको अपनी राजधानी बनाया। यहाँ धर्मोदय राजाके राज्यमें वसुमित्र नामक एक नगरसेठ था। वह जिनशासनमें अत्यन्त १. हिमाहू दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ। तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना महात्मनः ॥ -मार्कण्डेय पुराण ५०-४१, अग्नि पुराण १०-१२। वायुपुराण ३३-५२ । लिंगपुराण ४२-२३ । स्कन्धपुराण कौमारखण्ड ३७-५७ । हरिवंशपुराण ( जैन ) ८-५५, १०४ व ९-२१ । २. विविध तीर्थकल्प ( अउज्झाकल्प )। ३. आदिपुराण ४११८७ से ९६। हरिवंश पुराण १२-२ ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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