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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ अन्य जिनेश अनेक सगर चक्राधिप मंडित । दशरथ सुत रघुवीर लक्ष्मण रिपुकुल खंडित ।। जिनवर भवन प्रचंड तिहां पुण्यक्षेत्र जगि जाणिये । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति श्री जिन वृषभ बखाणिये ॥८१।। ज्ञानसागरजीके कथनानुसार यहाँ विशाल जिन मंदिर थे। अयोध्याको रचना और महत्त्व ___आचार्य जिनसेन कृत हरिवंश पुराणके अनुसार जब भोगभूमिका अन्त हुआ, उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये। केवल एक कल्पवृक्ष अवशिष्ट रह गया, जिसमें चौदहवें कुलकर अथवा मनु नाभिराय रहते थे। यही नाभिरायका भवन था। इसका नाम सर्वतोभद्र प्रासाद था। यह ८१ खण्ड का था। इसके चारों ओर कोट, वापिका और उद्यान थे। जब प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव गर्भमें आनेवाले थे, तब इन्द्रने कुबेरको त्रिलोकीनाथ भगवान्के उपयुक्त नगरीकी रचनाका आदेश दिया । फलतः दोनोंने अयोध्याकी रचना की। उस समय लोग जहाँ तहाँ बिखरे हुए थे। देवोंने उन सबको लाकर उस नगरीमें बसाया और सबकी सुविधाके लिए उपयोगी स्थानोंकी रचना की। इन्द्रने शुभ मुहूर्त-नक्षत्रमें प्रथम ही मांगलिक कार्य किया। उन्होंने अयोध्यापुरीके बीचमें जिनमन्दिरकी रचना की। फिर चारों दिशाओंमें भी जिन-मन्दिरोंका निर्माण किया। देवोंने उस नगरीको वप्र, प्राकार और परिखासे सुशोभित किया था। कोटके चारों ओर चार गोपुर बने हुए थे। यह बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी थी। यह संसारकी आद्य नगरी थी। वह अत्यन्त सुन्दर थी। जिस नगरीकी रचना करनेवाले कारीगर स्वर्गके देव हों, अधिकारी सूत्रधार इन्द्र हों और भवन बनानेके लिए सम्पूर्ण पृथ्वी पड़ी हो, उस नगरीकी सुन्दरताका क्या वर्णन हो सकता है । ___इसी नगरीमें भगवान् ऋषभदेवने आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदाको कृतयुग अथवा कर्मयुगका प्रारम्भ किया। उन्होंने यहींपर सबसे पहले असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य इन छह कर्मोका ज्ञान समाजको दिया था। यहींपर उन्होंने अपनी ब्राह्मी और सुन्दरी पुत्रियोंके माध्यमसे लिपि और अंक विद्याका आविष्कार किया था। अपने भरत आदि सौ पुत्रोंको बहत्तर कलाओंका शिक्षण भी इन्होंने यहीं दिया था। सामाजिक व्यवस्थाके लिए क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णको स्थापना उन्होंने यहीं की। राजनैतिक व्यवस्थाके लिए पुर, ग्राम, खेट, नगर, आदिकी सारी व्यवस्थाएं यहीं की। उन्होंने सारे राष्ट्रको ५२ जनपदों या देशोंमें विभाजित किया। राजपाट त्याग कर और निर्ग्रन्थ दिगम्बर मनि-दीक्षा लेकर उन्होंने धर्म-मार्गको प्रशस्त करनेका सौभाग्य भी इसी महान् नगरीको प्रदान किया। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरतने यहीं रहकर सम्पूर्ण भरतखण्ड पर विजय प्राप्त कर सार्वभौम साम्राज्यको स्थापना की और सम्पूर्ण साम्राज्यका केन्द्र अयोध्याको ही बनाया। वे भरत क्षेत्रके १. हरिवंश पुराण ८-४ २. विविधतीर्थकल्प ( अउज्झा कल्प ) ३. आदि पुराण १२-७६ ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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