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प्राक्कथन
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अधिकार करना होता है। तीर्थ तीर्थंकरों या केवलियोंके स्मारक हैं। उनकी उपदेश-सभामें सब जाते थेमनुष्य, देव, पशु-पक्षी तक। उनके पावन स्मारक स्वरूप तीर्थोंमें सब जायें, मनुष्य मात्र जायें, सभी तीर्थव्यवस्थापकोंकी यह हार्दिक कामना होती है। किन्तु उनकी इस सदिच्छाका दुरुपयोग करके कुछ लोग उस तीर्थपर ही अधिकार जताने लगें तो यह प्रश्न यात्राका न रहकर व्यवस्थाके स्वामित्वका बन जाता है। जहाँ प्राणीके कल्याण और विश्व-मैत्रीका घोष उठा था, वहाँ यदि कषायके निर्घोष गूंजने लगे तो फिर तीर्थोंकी पावनता कैसे बनी रह सकती है और तीर्थों के वातावरणमें-से पावनताका वह स्वर मन्द पड़ जाये तो तीर्थोका माहात्म्य और उनका अतिशय कैसे बना रह सकता है । आज तीर्थों पर वैसा अतिशय नहीं दीख पड़ता, जैसा मध्यकाल तक था। और उसके जिम्मेदार हैं वे लोग, जो योजनानुसार आये दिन तीर्थक्षेत्रोंके उन्मुक्त वीतराग वातावरणमें कषायका विषैला धुआँ छोड़कर वहाँ घुटन पैदा किया करते हैं। प्राचीन कालमें तीर्थ-यात्रा
प्राचीन काल में तीर्थ-यात्रा कैसे होती थी, इसके लिए कुछ उल्लेख शास्त्रोंमें मिलते हैं अथवा उनके यात्रा-विवरण उपलब्ध होते हैं । उनसे ज्ञात होता है कि पूर्वकालमें यात्रा-संघ निकलते थे। संघका एक संचालक होता था, जो संघका व्यय उठाता था। संघ में विविध वाहन होते थे-हाथी, घोड़े, रथ, गाड़ी आदि । संघके साथ मुनि भी जाते थे। उस समय यात्रामें कई-कई माह लग जाते थे। महाराज अरविन्द जब मुनि बन गये, और जब वे एक बार एक संघके साथ सम्मेद-शिखरकी यात्राके लिये जा रहे थे, अचानक एक जंगली हाथी आक्रमणके उद्देश्यसे उनपर आ झपटा। अरविन्द अवधि-ज्ञानी थे। उन्होंने जाना कि यह तो मेरे मन्त्री मरुभूतिका जीव है। अतः उन्होंने उस हाथीको सम्बोधित करके उपदेश दिया। हाथीने अणुव्रत धारण कर लिये और प्रासुक जल और सूखे पत्तों पर निर्वाह करने लगा। वही जीव बादमें पार्श्वनाथ तीर्थकर बना । इस प्रकारका कथन पौराणिक साहित्यमें मिलता है।
भैया भगवतीदास कृत 'अर्गलपुर जिन-वन्दना' नामक स्तोत्र है। उससे ज्ञात होता है कि रामपुरके श्रावकोंके साथ भैया भगवतीदास यात्रा करते हुए अर्गलपुर (आगरा) आये थे। उन्होंने अपने स्तोत्रमें आगराके तत्कालीन जैन मन्दिरों का परिचय दिया है। इससे यह भी पता चलता है कि उस समय जैन समाज में कितना अधिक साधर्मी वात्सल्य था। तब यात्रा संघके लोग किसी मन्दिरमें दर्शनार्थ जाते थे तो उस मुहल्लेके जैन बन्धु संघके लोगोंको देखकर बड़े प्रसन्न होते थे और उनका भोजन, पानसे सत्कार करते थे। दुःख है कि वर्तमानमें साधर्मी वात्सल्य नहीं रहा और न यात्रा-संघोंके स्वागत-सत्कार का ही वह रूप रहा ।
यात्रा संघोंके अनेक उल्लेख विभिन्न ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों आदिमें भी मिलते हैं।
तीर्थ-यात्रा कैसे करें?
वर्तमानमें यातायातके साधनोंकी बहुलता और सुलभताके कारण यात्रा करना पहले जैसा न तो कष्टसाध्य रहा है और न अधिक समय-साध्य । यात्रा-संघोंमें यात्रा करनेके पक्ष-विपक्षमें तर्क दिये जा सकते हैं । किन्तु एकाकीकी अपेक्षा यात्रा-संघोंके साथ यात्रा करनेका सबसे बड़ा लाभ यह है कि अनेक परिचित साथियोंके साथ यात्राके कष्ट कम अनुभव होते हैं, समय पूजन, दर्शन, शास्त्र-चर्चा आदिमें निकल जाता है; व्यय भी कम पड़ता है। रेलकी अपेक्षा मोटर बसों द्वारा यात्रा करने में कुछ सुविधा रहती है।
जब यात्रा करनेका निश्चय कर लें तो उसी समयसे अपना मन भगवान्की भक्तिमें लगाना चाहिए और जिस समय घरसे रवाना हों, उसी समयसे घर-गृहस्थीका मोह छोड़ देना चाहिए, व्यापारकी चिन्ता छोड़ देनी चाहिए तथा अन्य सांसारिक प्रपंचोंसे मुक्त हो जाना चाहिए ।
यात्रामें सामान यथासम्भव कम ही रखना चाहिए किन्तु आवश्यक वस्तुएँ नहीं छोड़नी चाहिए।