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भारत के दिगम्बर जैन तीर्थं
धर्म और पुण्य कार्यको कषायका साधन न बनावें । मनकी चंचलता, मनके संकल्प-विकल्पसे दूर होकर आप भगवान् के गुणोंके संकीर्तन चिन्तन और अनुभवनमें अपने आपको जिस उपायसे, जिस विधि से केन्द्रित करें, वही विधि आपके लिए उपादेय है । दूसरा व्यक्ति क्या करता है, क्या विधि अपनाता है, और उस विधिमें क्या त्रुटि है, आप इस पर अपने उपयोगको केन्द्रित न करके यह आत्म-निरीक्षण करें कि मेरा मन भगवान् के गुणोंमें आत्मसात् क्यों नहीं हुआ, मेरी कहाँ त्रुटि रह गयी, तब फिर क्या मतभेद मन-भेद बन सकते हैं ? तीन सौ तिरेसठ विरोधी मतोंके विविध रंगी फूलोंसे स्याद्वादका सुन्दर गुलदस्ता बनानेवाला जैनधर्म एक ही वीतराग जिनेन्द्र भगवान्के भक्तोंकी विविध प्रकारकी पूजन विधियोंके प्रति अनुदार और असहिष्णु बनकर उनकी मीमांसा करता फिरेगा ? और क्या जिनेन्द्र प्रभुका कोई भक्त कषायको कृश करनेकी भावनासे जिनेन्द्र प्रभुके समक्ष यह दावा लेकर जायेगा कि जिस विधिसे मैं प्रभुकी पूजा करता हूँ, वही विधि सबके लिए उपादेय है ? नहीं, बिलकुल नहीं। हमारे अज्ञान और कुज्ञानमेंसे दम्भ पूरता है और दम्भ अर्थात् मदमेंसे स्वके प्रति राग और परके प्रति द्वेष निपजता है । यह सम्यक् मार्ग नहीं है, यह मिथ्या-मार्ग है । तीर्थ-यात्रा का समय
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यों तो तीर्थ-यात्रा कभी भी की जा सकती है । जब भी यात्रा की जाये, पुण्य संचय ही होगा । किन्तु अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव देखकर यात्रा करना अधिक उपयोगी रहता है । द्रव्य की सुविधा होनेपर यात्रा करना अधिक फलदायक होता है । यदि यात्रा के लिए द्रव्यकी अनुकूलता न हो, द्रव्यका कष्ट हो और यात्रा के निमित्त कर्ज लिया जाये तो उससे यात्रामें निश्चिन्तता नहीं आ पाती, संकल्प-विकल्प बने रहते हैं । किस या किन क्षेत्रोंकी यात्रा करनी है, वे क्षेत्र पर्वतपर स्थित हैं, जंगल में हैं, शहरमें हैं अथवा सुदूर देहाती अंचल में हैं । वहाँ जानेके लिए रेल, बस, नाव, रिक्शा-तांगा या पैदल किस प्रकारकी यातायात सुविधा है, यह जानकारी यात्रा करनेसे पूर्व कर लेना आवश्यक है। इसके साथ-साथ कालकी अनुकूलता भी आवश्यक है । जैसे सम्मेद शिखरकी यात्रा तीव्र ग्रीष्म ऋतु में अथवा वर्षा ऋतुमें करनेसे बड़ी कठिनाई उठानी पड़ती है । उत्तराखण्ड के तीर्थोंके लिए वर्षा ऋतु अथवा सर्दीकी ऋतु अनुकूल नहीं है । उसके लिए ग्रीष्म ऋतु ही उपयुक्त है । कई तीर्थोंपर नदियों में बाढ़ आनेपर यात्रा नहीं हो सकती । कुछ तीर्थोंको छोड़कर उदाहरणतः उत्तराखण्ड के तीर्थ - शेष तीर्थोंकी यात्राका सर्वोत्तम अनुकूल समय अक्टूबरसे लेकर मार्च तक का है । इसमें मौसम प्रायः साफ रहता है, बाढ़ आदिका प्रकोप समाप्त हो चुकता है, ठण्डे दिन होते हैं । गर्मी की बाधा नहीं रहती । शरीरमें स्फूर्ति रहती है । यह मौसम पर्वतीय और मैदानी, शहरी और देहाती सभी प्रकारके तीर्थोंकी यात्राके लिए अनुकूल है । भावोंकी अनुकूलता यह है कि यात्रापर जाने के पश्चात् अपने भावोंको भगवान्को भक्ति-पूजा, स्तुति, स्तोत्र, जाप, कीर्तन, धर्म- चर्चा, स्वाध्याय और आत्मध्यान में लगाना चाहिए । अन्य सांसारिक कथाएँ, राजनैतिक चर्चाएँ नहीं करनी चाहिए ।
तीर्थ-यात्राका अधिकार
तीर्थ-यात्रा का उद्देश्य, जैसा कि हम निवेदन कर आये हैं, पापोंसे मुक्ति और आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करना है । जो भी व्यक्ति इन उद्देश्यों से तीर्थ-यात्रा करना चाहता है, वह कर सकता है। उसके लिए मुख्य शर्त है जिनेन्द्र प्रभुके प्रति भक्ति । जो प्रदर्शनके लिए ही तीर्थों पर जाना चाहते हैं, उनके लिए अधिकारका प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु जो विनय और भक्ति के साथ, वहाँके नियमोंका आदर करते हुए तीर्थवन्दनाको जाना चाहें, वे वहाँ जा सकते हैं । तीर्थ-यात्रा अधिकारका प्रश्न न होकर कर्तव्यका प्रश्न है । जो कर्तव्यको अपना अधिकार मानते हैं, उनके लिए अधिकारका कोई प्रश्न नहीं उठता । किन्तु जो अधिकारको ही अपना कर्तव्य बना लेते हैं, उनका उद्देश्य तीर्थ-वन्दना नहीं होता, बल्कि उस तीर्थकी व्यवस्था पर अपना