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प्राक्कथन
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ही को, न पंच परमेष्ठियोंको नमस्कार किया, तब तुझे मोक्षका लाभ कैसे होगा ?" इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान की पूजा श्रावकको अवश्य करनी चाहिए। भगवान की पूजा मोक्ष-प्राप्तिका एक उपाय है।
आदि-पुराण-पर्व ३८में पूजाके चार भेद बताये हैं-नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पद्रुमपूजा और आष्टाह्निकपूजा । अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत ले जाकर जिनालयमें जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात् नित्यमह ( पूजा ) कहलाता है । मन्दिर और मूर्तिका निर्माण कराना, मुनियोंकी पूजा करना भी नित्यमह कहलाता है। मुकुटबद्ध राजाओं द्वारा की गयी पूजा चतुर्मुख पूजा कहलाती है। चक्रवर्ती द्वारा की जानेवाली पूजा कल्पद्रुम पूजा होती है। और अष्टाह्निकामें नन्दीश्वर द्वीपमें देवों द्वारा की जानेवाली पूजा आष्टाह्निक पूजा कहलाती है।
पूजा अष्टद्रव्यसे की जाती है-जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल। इस प्रकारके उल्लेख प्रायः सभी आर्ष ग्रन्थोंमें मिलते हैं। तिलोयपण्णत्ति (पंचम अधिकार, गाथा १०२से १११) में नन्दीश्वर द्वीपमें अष्टाह्निकामें देवों द्वारा भक्तिपूर्वक की जानेवाली पूजाका वर्णन है । उसमें अष्टद्रव्योंका वर्णन आया है। धवला टीकामें भी ऐसा ही वर्णन है । आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण ( पर्व १७ श्लोक २५२ ) में भरत द्वारा तथा पर्व २३ श्लोक १०६में इन्द्रों द्वारा भगवान्की पूजाके प्रसंगमें अष्टद्रव्योंका वर्णन आया है।
पूजन विधिके प्रसंगमें समाजमें कुछ मान्यता-भेद है। अष्टद्रव्योंके नामोंके सम्बन्धमें कोई मतभेद नहीं है। केवल मतभेद है सचित्त और अचित्त (प्रासुक) सामग्रीके बारेमें। एक वर्ग की मान्यता है कि अष्टद्रव्योंमें जो नाम हैं, पूजनमें वे ही वस्तु चढ़ानी चाहिए। इसके विपरीत दूसरी मान्यता है कि सचित्त वस्तुमें जीव होते हैं, उनकी हिंसाकी सम्भावनासे बचनेके लिए प्रासुक वस्तुओंका ही व्यवहार उचित है।
मतभेदका दूसरा मुद्दा है-भगवान् पर केशर चचित करनेका । इसके पक्षमें तर्क यह दिया जाता है कि अष्टद्रव्योंमें दूसरा द्रव्य चन्दन या गन्ध है। उसका एक मात्र प्रयोजन है भगवान् पर गन्ध विलेपन करना। दूसरा पक्ष इस बातको भगवान् वीतराग प्रभुकी वीतरागताके विरुद्ध मानता है और गन्ध-लेपको परिग्रह स्वीकार करता है।
पूजनके सम्बन्धमें तीसरा विवाद इस बातको लेकर है कि पूजन बैठकर किया जाय या खड़े होकर । चौथा विवादास्पद विषय है भगवान्का पंचामृताभिषेक अर्थात् घृत, दूध, दही, इक्षुरस और जल । पाँचवाँ मान्यता-भेद है स्त्रियों द्वारा भगवान्का प्रक्षाल।
इन मान्यता-भेदोंके पक्ष-विपक्षमें पड़े बिना हमारा विनम्र मत है कि भगवान्का पूजन भगवान्के प्रति अपनी विनम्र भक्तिका प्रदर्शन है। यह कषायको कृश करने, मनको अशुभसे रोककर शुभमें प्रवृत्त करने और आत्म-शान्ति प्राप्त करनेका साधन है। साधनको साधन मानें, उसे साध्य न बना लें तो मान्यता-भेदका प्रभाव कम हो जाता है। शास्त्रोंको टटोलें तो इस या उस पक्षका समर्थन शास्त्रोंमें मिल जायेगा। जिस आचार्यने जिस पक्षको युक्तियुक्त समझा, उन्होंने अपने ग्रन्थमें वैसा ही कथन कर दिया। उन्हें न किसी पक्षका आग्रह था और न किसी दूसरे पक्षके प्रति द्वेष-भाव ।
हमें लगता है, अपने प्रक्षके प्रति दुराग्रह और दूसरे पक्षके प्रति आक्रोश और द्वेष-बुद्धि, यह कषायमें-से उपजता है। इसमें सन्देह नहीं कि सचित्त फलों और नैवेद्य ( मिष्टान्न आदि ) का वर्णन तिलोयपण्णत्ती में नन्दीश्वर द्वीपमें देवताओंके पूजन-प्रसंगमें मिलता है, अन्य शास्त्रोंमें भी मिलता है। किन्तु हमारी विनम्र मान्यतामें जब शुद्धाशुद्धि और हिंसा आदिका विशेष विवेक नहीं रहा, उस काल और क्षेत्रमें सुधारवादी प्रवृत्ति चली और इसपर बल दिया गया कि जो भी वस्तु भगवान्के आगे अर्पण की जाये, वह शुद्ध हो, प्रासुक हो, सूखी हो, जिसमें हिंसा की सम्भावनासे बचा जा सके। यही बात गन्ध-विलेपन और पंचामृताभिषेकके सम्बन्धमें है।
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