________________
१४८
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ यह स्थान प्राचीन काल में मुनियों की तपोभूमि रहा है। कालिन्दी का प्रशान्त कूल, सुरम्य पर्वत की हरीतिमा और गहा की एकान्त शान्ति यह सारा वातावरण मनियों के ध्यान-अध्ययन के उपयुक्त है। प्राचीन साहित्य में ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि यहाँ पर मुनिजन तपस्या किया करते थे। ललितघट आदि बत्तीस राजकुमार मनि बन कर यहाँ आये और यमुना तट पर खड़े होकर विविध प्रकार के तप करने लगे।
एक दिन यमुना में भयंकर बाढ़ आ गयी और वे सभी मुनि बाढ़ में बह गये। उनकी स्मृति में यहाँ बत्तीस समाधियाँ बनी हुई थीं जिन पर हिन्दुओं का अधिकार है। इतिहास
पभोसा कौशाम्बी का ही एक भाग था। यहाँ उस समय वन था। इसलिए कौशाम्बी से भिन्न पभोसा का अपना कोई स्वतन्त्र इतिहास नहीं है। यहाँ तीर्थंकर पद्मप्रभु के दो कल्याणकों की पूजा और उत्सव हुए। यहाँ बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के काल में एक महत्त्वपूर्ण घटना घटी। भगवान् नेमिनाथ ने बलराम के पूछने पर द्वारका और नारायण श्रीकृष्ण के भविष्य का वर्णन करते हुए कहा-आज से बारह वर्ष पीछे मद्यपी यादवों द्वारा उत्तेजित किये गये द्वैपायन मुनि के शाप से द्वारका भस्म होगी। अन्तिम समय में श्रीकृष्ण कौशाम्बी के वन में शयन करेंगे और जरत्कुमार उनकी मृत्यु के कारण बनेंगे।
भगवान् की इस भविष्यवाणी को सुनकर बलराम के मामा (रोहिणी के भाई ) द्वैपायन विरक्त होकर मुनि बन गये और कहीं दूर वनों में जाकर तप करने लगे। इसी प्रकार श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता जरत्कुमार भी वहाँ से चले गये और वनों में रहने लगे। तीर्थंकर अन्यथावादी नहीं होते । दोनों ने ही, लगता था, भवितव्य और तीर्थंकर-वाणी को झुठलाना चाहा। किन्तु भवितव्य होकर ही रही। द्वैपायन के क्रोध से द्वारका भस्म हो गयी। बलराम और श्रीकृष्ण वहाँ से चल दिये और कौशाम्बी के इस वन में पहुँचे । श्रीकृष्ण प्यास से व्याकुल हो गये। वे एक पेड़ की छाँह में लेट गये। बलराम जल लाने गये। जरत्कुमार उसी वन में घूम रहा था। उसने दूर से कृष्ण के वस्त्र को हिलता हुआ देखकर उसे हिरण समझा। उसे बाण सन्धान करते देर न लगी। बाण जाकर श्रीकृष्ण के पैर में लगा। जब जरत्कुमार को तथ्य का पता लगा तो वह आकर पैरों में पड़ गया। श्रीकृष्ण सम्यग्दृष्टि थे, भावी तीर्थंकर थे। उन्होंने बड़े शान्त और समता भाव से प्राण विसर्जन किये। बलदेव जब लौट कर आये तो अपने प्राणोपम अनुज को मृत देखकर वे ऐसे मोहाविष्ट हुए कि वे छह माह तक मत देह को लिये फिरते रहे। अन्त में एक देव द्वारा समझाने पर तुंगीगिरि पर जाकर उन्होंने दाह-संस्कार किया।
इस प्रकार इस कल्पकाल के अन्तिम नारायण श्रीकृष्ण के अन्तिम काल का इतिहास पभोसा की मिट्टी में ही लिखा गया। स्थानीय मन्दिर
यहाँ दिगम्बर जैन धर्मशाला बनी हुई है। धर्मशाला में ही एक कमरे में मन्दिर है। इस मन्दिर में भूगर्भ से निकली हुई कुछ प्राचीन जैन मूर्तियाँ भी विराजमान हैं। ये मूर्तियाँ प्रायः हल जोतते हुए किसानों को मिली हैं। एक शिला-फलक में भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा है। फलक की ऊँचाई चार फुट है। प्रतिमा पद्मासन है। इसके दोनों ओर दो-दो खड्गासन अरिहंत प्रतिमा हैं। सिंहासन के आधार रूप में दो सिंह बने हए हैं। बीच में कमल अंकित है। शिरोभाग के ऊपर