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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
प्राचीन साहित्यसे यह पता चलता है कि धवल सेठ यहींका रहने वाला था, वस्तुतः यह नगरी उस समय अत्यन्त समृद्ध थी। यातायातकी यहाँ सुविधाएँ थीं। फलतः देशदेशान्तरोंके साथ उसका व्यापारिक सम्बन्ध था। यह श्रावस्तीसे प्रतिष्ठान जाने वाले मार्ग पर एक प्रसिद्ध व्यापारिक केद्र था। मौर्य , शंग , कुशाण और गप्त कालमें भी यह नगरी कला और वाणिज्यका केन्द्र रही। बरसातके दिनोंमें अब भी कभी कभी मूल्यवान् पाषाण-रत्न आदि खेतोंमें मिल जाते हैं।
यह नगरी शताब्दियों तक मण्मूर्तियों तथा मनकोंके निर्माण का प्रसिद्ध केन्द्र रही। किन्तु मुस्लिम कालमें इसकी समृद्धि समाप्त हो गयी। कला का विनाश कर दिया गया; मूर्तियाँ, मन्दिर, स्तूप, शिलालेख तोड़ दिये गये। उससे कौशाम्बीका स्वर्णिम अतीत खण्डहरोंके रूपमें बिखर गया।
पुरातत्त्व
कौशाम्बीमें प्रयाग विश्वविद्यालयकी ओरसे खुदाई हई थी। फलतः यहाँसे हजारों कलापूर्ण मृण्मूर्तियाँ और मनके प्राप्त हुए थे , जो प्रयाग संग्रहालयमें सुरक्षित हैं।
कहा जाता है , ढाई हजार वर्ष पहले राजा शतानीकका किला चार मील के घेरेमें था। उसमें बत्तीस दरवाजे थे। उसीके अन्दर कौशाम्बी नगरी बसी हुई थी। कई स्थानों पर तो अब भी किलेकी ध्वस्त दीवाले ३० से ३५ फुट ऊंची स्पष्ट दिखाई देती हैं। यहाँ प्राचीन नगरके भग्नावशेष मीलोंमें बिखरे पड़े हैं। इनके मध्य सम्राट् सम्प्रति का बनवाया हुआ एक स्तम्भ भी खड़ा हुआ है। भगवान् पद्मप्रभुका जन्म स्थान होने के कारण सम्राट् सम्प्रतिने यहाँ स्तम्भ निर्मित कराया था और उसके ऊपर जैन धर्मकी उदार शिक्षाएँ अंकित करायी थीं। __ यहाँ के खण्डहरों में मैंने सन् १९५८ की शोध - यात्रामें अनेक जैन मूर्तियोंके खण्डित भाग पड़े हुए देखे थे। मुझे अखण्डित जैन प्रतिमा तो नहीं मिल पायी थी किन्तु जो खण्डित प्रतिमाएँ मिलीं , उनमें किसी प्रतिमाका शिरोभाग था तो किसीका अधोभाग। मुझे जो शिरोभाग मिले , वे भावाभिव्यंजना और कला की दृष्टि से अत्यन्त समुन्नत थे। मुझे सिंहासन पीठ और आयागपट्ट के भी कुछ भाग उपलब्ध हुए थे। सिंहासन पीठ पर धर्मचक्र और पुष्प उत्कीर्ण थे। वे तथा आयागपट्ट के अलंकरण भी अनिन्द्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण थे। . खुदाईमें एक बिहार निकला है, जो मंखलीपुत्र गोशालकका कहलाता है। कहा जाता है, इस बिहार में गोशालकके सम्प्रदायके पाँच हजार साधु रहते थे। प्रारम्भमें गोशालक भगवान् महावीरका शिष्य था। किन्तु बादमें वह भगवान्से द्वेष और स्पर्धा करने लगा। उसने एक नया सम्प्रदाय भी चलाया, जिसका नाम आजीवक सम्प्रदाय था। किन्तु अब तो वह केवल ग्रन्थोंमें हो रह गया है। जैन मन्दिर
विधिको यह कैसी विडम्बना है कि जो नगरी कभी जैनधर्मका प्रमुख केन्द्र रही, आज वहाँ एक भी जैनका घर नहीं है। केवल लाला प्रभुदासजी आरावालोंका बनवाया हुआ एक दिगम्बर जैन मन्दिर और एक जैन धर्मशाला है। मन्दिरमें दो वेदियाँ हैं। एकमें भगवान् पद्मप्रभुकी प्रतिमा और चरण हैं। एक शिलाफलकमें खड्गासन प्रतिमा अंकित है। बायीं ओर देवी एक बालक को गोद में लिये हए आसीन है। मर्तिके सिरके दोनों ओर यक्ष-यक्षिणी