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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ सारे बन्धन खुल गये। सेठानीने उसे निराभरण कर रखा था, उसे खानेके लिए कांजी मिश्रित कोदोंका भात मिट्टीके सकोरेमें दे रखा था। भगवान्के दर्शन करते ही उसका कोमल शरीर बहुमूल्य वस्त्राभरणोंसे सुशोभित होने लगा। उसके शीलके माहात्म्यसे उसका मिट्टीका सकोरा सोनेका हो गया और कोदोका भात शाली चावलोंका भात बन गया। किन्तु चन्दनाको तो इस सबकी ओर ध्यान देनेका अवकाश ही कहाँ था। वह तो प्रभुकी भक्तिमें लीन थी। जगद्गुरु त्रिलोकीनाथ प्रभ उसके द्वारपर आहारके लिए आये थे। उसके हृदयका सम्पूर्ण रस ही भ बन गया था। वह भगवान्के चरणोंमें झुकी और नवधा भक्तिपूर्वक उसने भगवान्को पड़गाहा। आज उसके हृदयमें कितना हर्ष था! वह अपने सारे शोक-सन्तापोंको भूल गयी। आज उसके हाथोंसे तीर्थंकर भगवान्ने आहार लिया था। इससे बड़ा पुण्य संसारमें क्या कोई दूसरा हो सकता है ?
भगवानका आहार समाप्त हआ। देवोंने आकर उसका सम्मान किया। उन्होंने पंचाश्चर्य किये। आकाशसे रत्नवर्षा हुई, पुष्पवृष्टि हुई, देवोंने दुन्दुभि घोष किये, शीतल सुरभित पवन बहने लगा और आकाशमें खड़े हुए देव जयजयकार कर रहे थे। 'धन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य यह दाता।'
प्रभु आहारके पश्चात् वनकी ओर चले गये, भक्त चन्दना जाते हुए प्रभुको निनिमेष दृष्टिसे देखती रही। कौशाम्बीके नागरिक आकर चन्दनाके पुण्यकी सराहना कर रहे थे। यह पुण्य-चर्चा राजमहलोंमें भी पहुंची। कौशाम्बी-नरेश शतानीककी पटरानी मृगावतीने सुना तो वह उस महिमामयी भाग्यवती नारीके दर्शन करनेके लिए राजकुमार उदयनके साथ स्वयं आयी। किन्तु उसे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य-मिश्रित हर्ष हुआ कि वह नारी और कोई नहीं, उसकी छोटी बहन है। वह अपनी प्रिय बहनको बड़े आदरपूर्वक महलोंमें लिवा ले गयी। किन्तु चन्दना अपनी इस अल्पवयमें ही कर्मके जिन क्रूर हाथोंमें पड़कर नाना प्रकारकी लांछनाओं और व्यथाओं का अनुभव कर चुकी थी, उससे उसके मनमें संसारके प्रति प्रबल निर्वेद पनप रहा था। उसके बन्धुजन आकर उसे लिवा ले गये। लेकिन उसका वैराग्य पकता ही गया और एक दिन चन्दना घर-बार और राजसुखोंका परित्याग करके भगवान् महावीरकी शरण में जा पहुंची और आर्यिका दीक्षा ले ली। अपने तप और कठोर साधनाके बलपर वह भगवान् महावीरकी ३६००० आर्यिकाओं के संघकी सर्वप्रमुख गणिनीके पदपर प्रतिष्ठित हुई।
भगवान् महावीर अपने जीवन कालमें कई बार कौशाम्बी पधारे और वहाँ उनका समवसरण लगा। तत्कालीन इतिहास
जैन ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व ७वीं शताब्दीमें जो सोलह बड़े जनपद थे, उनमें एक वत्सदेश भी था, जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। गंगाकी बाढ़के कारण जब हस्तिनापुरका विनाश हो गया, उसके बाद चन्द्रवंशी नरेश नेमिचक्रने कौशाम्बीको अपनी राजधानी बनाया था। उनके वंशने यहाँ बाईस पीढ़ी तक राज्य किया।
भगवान् महावीरके समयमें शतानीक वत्स देशका राजा था। वैशाली गणतन्त्रके अधिपति चेटककी सात पुत्रियाँ थीं जिनमेंसे ज्येष्ठा और चन्दना तो प्रवजित हो गयीं। शेष पाँच पुत्रियोंमें बड़ी पुत्री प्रियकारिणी, जिन्हें त्रिशला भी कहा जाता है, कुण्डलपुर नरेश महाराज सिद्धार्थके साथ ब्याही गयीं। मृगावती वत्सनरेश चन्द्रवंशी सहस्रानीकके पुत्र शतानीकके साथ, सुप्रभा दशार्ण देश